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________________ समसामयिकता भगवान् महावीर के सिद्धान्त और उनका जीवनदर्शन उनके काल से लेकर आजतक निरन्तर प्रासंगिक बना रहा है। भगवान् महावीर के निर्वाण के मात्र चौरासी वर्ष हये थे कि उनका संवत् एक शिलालेखीय प्रमाण में प्राप्त होता है। यह शिलालेख संप्रति अजमेर के राजकीय संग्रहालय में विद्यमान है। __ भारतीय जीवन एवं संस्कृति पर भगवान महावीर के अहिंसा, अनेकान्त आदि सिद्धांतों का व्यापक प्रभाव परिलक्षित होता है। जैन-परम्परा के अनुसार तीर्थंकर के समान पुण्यशाली जीव अन्य कोई नहीं होता, और उनके इस उत्कृष्ट पुण्य का ही प्रभाव होता है कि तीनों लोकों में धर्म की ऐसी उत्कृष्ट प्रभावना संभव होती है। यह भी माना गया है कि एक तीर्थंकर का पुण्य-प्रसार अगले तीर्थंकर के प्रार्दुभाव (तीर्थोत्पत्ति) होने तक निरन्तर माना जाता है। तदनुसार जब इस भरतक्षेत्र में आगामी तीर्थंकर उत्पन्न होंगे, और उन्हें कैवल्य-प्राप्ति के बाद तीर्थ की उत्पत्ति होगी, तब तक भगवान महावीर का तीर्थ ही प्रवर्तमान रहेगा और भगवान् महावीर जिनशासन के नायक बने रहेंगे। ऐसे उत्कृष्ट पुण्य की जैन-परम्परा में अपार महिमा मानी गयी है, युगप्रधान आचार्य कुन्दकुन्द तो यहाँ तक लिखते हैं कि “पुण्णफला अरिहंता" इसके साथ ही यह पद्य भी मननीय है “जदि चित्तं ण हि वित्तं, चित्तं वित्तं च ण हि पुत्तं । चित्तं वित्तं पत्तं पुण्णेण विणा ण हि लभंते ।।" अर्थ :-- यदि भाव हैं और धन के साधन नहीं हैं, यदि भाव और धन दोनों हैं फिर भी पुत्र नहीं है (तो इनकी निरर्थकता का अनुभव होता है।) भाव, धन और पुत्र इन तीनों की ही प्राप्ति पुण्य के बिना नहीं होती है। नीतिकारों ने इसीलिये लिखा है कि-"पुण्येन बिना न हि भवन्ति समीहितार्था:।" आज के महावीर के अनुयायियों को इस तथ्य को समझना पड़ेगा और मात्र आयोजनों से संतुष्ट न होकर आचरण में 'अहिंसा', विचार में 'अनेकान्त', वाणी में 'स्याद्वाद' तथा जीवन में 'अपरिग्रह' के पूण्यशाली सिद्धांतों को अपनाकर अपने जीवन को पवित्र बनाना होगा, तभी भगवान महावीर का जीवन और दर्शन हमारे जीवन की निधि बन सकेगा। पुण्य शब्द का वास्तविक अर्थ पवित्रता है, और मन-वचन-काय की पवित्रता को अपनाये बिना मात्र जय-जयकार लगाकर और भीड़भरे आयोजन कर हम भगवान् महावीर की 2600वीं जन्म-जयन्ती के वर्षव्यापी कार्यक्रमों की सफलता नहीं मान सकते हैं। इसकी सफलता का आधार हमारे मन-वचन-कर्म की पवित्रता होगी, न की आयोजन-प्रियता। Jain Odontemपाकलविद्या जनवरी सन!omperianbad पदातीर चन्टमा Nिirary.org
SR No.003215
Book TitlePrakrit Vidya 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain, Sudip Jain
PublisherKundkund Bharti Trust
Publication Year2001
Total Pages148
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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