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________________ दिन व्यतीत करने के उपरान्त महावीर मन-वचन-कर्म से शुद्ध ( वीतरागी - सर्वज्ञ भगवान्) बन गये । इसप्रकार तीसरे 'ज्ञान-कल्याणक' का मंगल प्रसंग उपस्थित हुआ । इन्द्र की आज्ञा से कुबेर ने तत्काल धर्मसभा 'समवसरण' की रचना की । बारह सभाओं में मनुष्य, तिर्यंच और देव तीर्थंकर के मंगल प्रवचन 'दिव्यध्वनि' के श्रवणार्थ एकत्रित हुए; किन्तु उन्हें निराश होना पड़ा । नियत समय पर तीर्थंकर महावीर का वहाँ से विहार हो गया । यह क्रम कई दिनों तक चला, तो इन्द्र चिन्तित हो गया। उसने अपने अवधिज्ञान से जाना कि समर्थ शिष्य के अभाव में दिव्यध्वनि निःसृत नहीं हो रही है । तब अवधिज्ञान से ही गौतम-गोत्रीय इन्द्रभूति नामक विप्रवर को इस पद के योग्य पाया और नीतिपूर्वक वह उन्हें समवसरण में ले आया । समवसरण में तीर्थंकर का मानस्तम्भ देखने मात्र से उनमें अतिशय विनय का भाव जागृत हुआ और उन्होंने तीर्थंकर महावीर का शिष्यत्व अंगीकार कर लिया। इस बारे में निम्नानुसार उल्लेख मिलते हैं"मानस्तम्भ-1 म-विलोकनादवनतीभूतं शिरो बिभ्रता, पृष्टस्तेन सुमेधसा स भगवानुद्दिश्य जीवस्तितिम् । तत्संशीतिमपाकरोज्जिनपतिः संभूत दिव्यध्वनि, र्दीक्षां पञ्चशतैर्द्विजातितनयैः शिष्यैः समसोऽग्रहीत । । ” - (महाकवि असग, वर्धमान - चरितम्, 18 /51) मानस्तम्भ के देखने से नम्रीभूत शिर को धारण करनेवाले उस बुद्धिमान् इन्द्रभूति ने जीव के सद्भाव को कक्ष कर भगवन महावीर से पूछा और उत्पन्न हुई 'दिव्यध्वनि' से सहित भगवान् महावीर ने उसके संशय को दूर कर दिया। उसी समय पाँच सौ ब्राह्मण-पुत्रों के साथ उस इन्द्रभूति ने श्रमण-दीक्षा से अपने को विभूषित किया । श्री वर्द्धमानस्वामिनं, प्रत्यक्षीकृत्य गौतमस्वामी 'जयति भगवन्' इत्यादि स्तुतिमाह— “ततश्च जयति भगवान् इत्यादि नमस्कारं कृत्वा जिनदीक्षां गृहीत्वा केशलोचनानन्तरमेव चतुर्ज्ञानसमृर्द्धिसम्पन्नास्त्रयोति गणधरदेवा: संजाताः । गौतमस्वामी भव्योपकारार्थं द्वादशांग श्रुतरचना कृतवान् । ” - (वृहद् द्रव्यसंग्रह, संस्कृत टीका) अर्थ :गौतम गणधर ने भगवान् महावीर तीर्थंकर के प्रत्यक्ष दर्शन कर 'जयति भगवान्' इन शब्दों से प्रारंभ करते हुये स्तुति की तदनन्तर गौतम, अग्निभूति और वायुभूति इन तीनों विद्वानों ने तीर्थंकर महावीर भगवान् को भक्तिपूर्वक नमस्कार किया । निर्ग्रन्थ दीक्षा ग्रहण की और केशलौंच करने के अनन्तर ही मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान और मन:पर्ययज्ञान चारों ज्ञान उनको प्रकट हो गये तथा सातों प्रकार की ऋद्धियां प्रगट हो गईं। इसप्रकार वे तीनों ही मुनि उस समय भगवान् महावीर के गणधर हुये। उनमें से गौतम स्वामी ने भव्य जीवों का उपकार करने के लिये द्वाद्वशांग श्रुतज्ञान Jain 2014nter प्राकृतविद्या - जनवरी - जून 2001 (संयक्तांक) महावीर - चन्दना - विशेषांकary.org
SR No.003215
Book TitlePrakrit Vidya 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain, Sudip Jain
PublisherKundkund Bharti Trust
Publication Year2001
Total Pages148
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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