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“जो संजय - विजयहिं चारणेहिं, अवलेइउ सेसवि देवदेउ,
उ भीसणु संदेहहेउ, सम्मइ कॉक्कउ संजम - धणेहिं । विरइय-गुर - विणय-पयाहिणेहिं । । " – (वीरजिणिदचरिउ, 1-10-15 )
'संजय' और 'विजय' नामक चारणऋद्धिधारी मुनियों ने उनके शैशवकाल में ही देवों के देव तीर्थंकर वर्द्धमान को जान लिया ।
और अब तो वे साक्षात् संयम साधना के मार्ग पर अग्रसर हो गये थे / “य: सर्वसिद्धान्प्रणिपत्य केशानुत्पाट्य दिव्यांबरमालयभूषाः । त्यक्त्वा प्रवव्राज निजात्मलब्धै...
।।”
- ( प्रतिष्ठापाठ 309)
उन्होंने ‘णमो सिद्धाणं' उच्चारण करके उत्तम और देवापनीत सुन्दर वस्त्र-माल्य आभूषणों को त्यागकर हाथों से पंचमुष्टि केशलोंच किया और आत्मपद प्राप्ति हेतु निर्ग्रन्थ-दीक्षा ग्रहण की।
आत्मसाधना करते हुए वे एक बार कौशाम्बी नगरी में पधारे। वहाँ नारी - समूह की शिरोमणि आर्या चन्दना अपने पूर्वकृत कर्मों का फल भोगती हुई श्रेष्ठि वृषभदत्त की पत्नी की ईर्ष्या के कारण तलघर में वंदिनी बनी हुई थी। उसके आहारदान के पुण्य-प - परिणाम को सफल बनाते हुए मुनिराज वर्द्धमान ने उससे आहार ग्रहण किया एवं दानतीर्थ के अध्याय में तो नया अध्याय जोड़ा ही, नारियों के आत्मगौरव की प्रतिष्ठा भी की। आहारदान-चन्दना की महिमा के बारे में आचार्य गुणभद्र लिखते हैं“शील - महात्म्यसंभूत पृथुहेमशराविका ।
शालयन्नभाववत्कोद्रवोदना विधिवत्सुधी । । " - ( उत्तरपुराण, 74/346) अर्थ :- चन्दना के शील के माहात्म्य से मिट्टी के बर्तन स्वर्णमय हो गये तथा साधारण उबले हुए कोदों उत्कृष्ट शालितंदुल से निर्मित खीर बन गये ।
इसीप्रकार निरन्तर आत्मसाधना एवं विहार करते हुए बारह वर्ष व्यतीत होने पर 'जृम्भिका' ग्राम के निकट 'ऋजुकूला' नदी के तट पर उन्हें कैवल्य की प्राप्ति हुई— “ग्राम - पुर - खेट - कर्वट - मडम्ब - घोषाकरान्प्राविहार ।
उग्रैस्तपोविधातै- र्हादशवर्षाण्यमरपूज्यः । । ” – ( पूज्यपाद निर्वाणभक्ति, 10 ) “ नयन द्वादशवर्षाणि साधिकानि छद्मस्थो मौनव्रती तपश्चचार"
- (शीलांक, आचारांग सूत्रवृत्ति, पृ० 273 ) “गमइय छदुमत्थत्तं बारसवासाणि पंच- मासे य । पण्णरसाणि दिणाणि य तिरयणसुद्धो महावीरो । । "
अर्थ :
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- ( जयधवला, भाग 1, पृ0 81 ) मुनिदीक्षा के बाद छद्मस्थ - अवस्था में बारह वर्ष, पाँच माह और पन्द्रह
प्राकृतविद्या जनवरी-जून'2001 (संयुक्तांक) महावीर - चन्दना - विशेषांक 00 13
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