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________________ सप्ततत्त्व, सात विभक्ति-प्रत्यय आदि । ___“सप्तभंगी' की सप्त संख्या का विशेष महत्त्व बतलाते हये 'प्रतिष्ठातिलक' के कर्ता लिखते हैंस्याद्वादन्यायनायक: परमाप्तो तीर्थकरवृषभनाथदिपरमभट्टारक: 'जिनेश्वरश्रीचरणाम्बुजग्रे, सर्वाणि धान्यानि विमिश्रितानि। अनंतधर्मेष्वपि संभवन्तीमर्हन्तु दिव्यध्वनि सप्तभंगीम् ।।' -(पं० नेमिचन्द्र, प्रतिष्ठातिलक. 10/3. 1/267) भावार्थ:--प्रतिष्ठा के समय केवलज्ञान कल्याण की पूजा करनेवाला जो प्रतिष्ठा आचार्य है, वह धान्यों को मिलाकर जिनेश्वर श्रीचरणों में बढ़ाता है; उसपर श्री नेमिचंद्र जी (प्रतिष्ठातिलक रचयिता) ने भव्यजीवों को शिक्षा देने के निमित्त यह हार्दिक अभिप्राय व्यक्त किया है कि जिस तरह से सप्तधान्य परस्पर में मिलकर कार्यकारी हैं, उसीप्रकार अनंत धर्मात्मक तत्वों को समझने के लिए तीर्थकर जिनेन्द्र की दिव्यध्वनि (दिव्य अर्थों की (जननकी ) भी सप्तभंगात्मक (सहायैव तत्संदेह समुत्पादात्) ही खिरती है। तभी वह परस्पर में एक-दूसरे धर्म का समन्वय करती हुई विद्वज्जन-सेवनीय होती है।)। वैदिक वाङ्मय में भी सप्तविध वचनों की स्वीकृति एवं महत्ता मानी गयी है... 'सप्तधा वै वागवदत्, सप्तविभक्तय: इति। ---(ऐतरेय ब्राह्मण, 7/7) 'स्याद्वाद-वर्त्मनि परात्मविचारसारे, ज्ञानक्रियातिशय-भावनायां । शब्दार्थ-संघटनसीम्नि रसातिरेके, व्युत्पत्तिमाप्तु मनसां दिगसौ शिशूनाम् ।।' -(आचार्य अमृतचन्द्र, लघुतत्त्वस्फोट, 2) अर्थात् पर और आत्मा के विचारभूत स्याद्वादरूपी मार्गाग्रणी में और ज्ञान-चारित्र के अतिशय वैभव की भावना में, व्युत्पत्ति (बोध) प्राप्त करने के इच्छुक शिशुओं के लिये यह शब्द-अर्थ का सीमित रसातिरेक शब्द-समूह मात्र दिशा दिखलाता है, विशेष अनुभव से ही प्राप्त होगा। सुनयों से युक्त वाणी की महिमा एवं कामना के स्वर वैदिक वाङ्मय में भी गुंजित है- 'आ नो गोत्रा दर्दहि गोपते गा:, समस्मभ्यं सु-नयो यंतु वाजा। देवक्षा अतिवृषभ सत्य शुष्माडस्मभ्यं, सु मघवन्बोधि गोदा: ।।' __--(ऋग्वेद. 3/2/30/2]) अर्थात् हे पृथ्वी के पालक देव। हमें सुनय-सहित वाणियों को प्रदान कर आदरयुक्त बना, जिससे हम अपनी वृत्तियों और इन्द्रियों को संयत रख सकें। हे वृषभ ! तू सूर्य के समान सब दिशाओं में प्रकाशमान है और तू सत्य के कारण बलवान है ! हे ऐश्वर्यमात्र मघवन् ! हमें बोधि प्रदान कर ! अत: वाचिक सहिष्णुता के सिद्धान्त ‘स्याद्वाद' का जीवन में व्यावहारिक धरातल पर व्यापक प्रयोग करना समय और समझ --दोनों के अनुकूल है। 10 100 प्राव Jain Education internatione जनवरी-जन'2001 (संयक्तांक For Pricate & Personal use only T-विशेषाक ww.jainelibrary.org
SR No.003215
Book TitlePrakrit Vidya 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain, Sudip Jain
PublisherKundkund Bharti Trust
Publication Year2001
Total Pages148
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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