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________________ “धर्मतीर्थंकरेभ्योऽस्तु स्याद्वादिभ्यो नमो नम: । ऋषभादि-महावीरान्तेभ्य: स्वात्मोपलब्धये ।।" – (आ० अकलंकदेव, लघीयस्त्रय. 1/1) एक जगह तो स्याद्वाद' को जिनशासन का भेरीनाद भी कहा गया है। जैसे रणक्षेत्र में रणभेरी का नाद सुनकर कायरों का पलायन होता है, वैसे ही 'स्याद्वाद' का भेरीनाद सनते ही मोह और अज्ञान का पलायन हो जाता है “यावत्स्याद्वादभेरी या जिनसैन्ये प्रगर्जति । तावत्भंगं समायान्ति दर्शनान्याशु पञ्च वै।।” ~~~ (मदनपराजय, 4/71) यहाँ यह प्रश्न संभव है कि स्याद्वादी वचनपद्धति में 'स्यात्' पद का प्रयोग करके धर्मों का कथन तो होता है, परंतु क्या इसका कोई सुमर्यादित विधान भी है? ....इसका उत्तर देते हुये जैनाचार्य कहते हैं कि एक धर्मयुगल के बारे में सात प्रकार की ही जिज्ञासायें संभव हैं, जिसके कारण उसके प्रश्न भी सात ही होते हैं और उत्तर भी सात होने से सात वाक्य 'स्यात्' पद-युक्त बनते हैं। इसे ही 'सप्तभंगी सिद्धान्त' कहते हैं। इन सप्तभंग 'स्यात्' पदशोभित वाक्यों का ‘अस्ति-नास्ति' धर्मयुगल पर प्रयोग करके निम्नानुसार दर्शाया गया है "स्यादस्ति स्वचतुष्टयादितरत: स्यान्नास्त्यपक्षमक्रमात्, तत् स्यादस्ति च नास्ति चेति युगपत् सा स्यादवक्तव्यता। तद्वत् स्यात् पृथगस्ति नास्ति युगपत् स्यादस्तिनास्त्यिाहिते, वक्तव्ये गुणमुख्य-भावनियत: स्यात् सप्तभंगीविधिः ।।" ___-(श्रीपुरपार्श्वनाथस्तोत्रम्. 10) अर्थ:-1. स्यादस्ति, 2. स्यान्नास्ति, 3. स्यादस्तिनास्ति, 4. स्यादवक्तव्य, 5. स्यादस्त्यवक्तव्य. 6. स्यान्नास्त्यवक्तव्य और 7. स्यादस्तिनास्त्यवक्तव्य-ये सात भंग हैं। वक्तव्य में गौण और मुख्यभाव नियत करनेवाली यह सप्तभंग-विधि है। इसकी सार्थकता बतलाते हये आचार्य समन्तभद्र लिखते हैं.... समन्तभद्र- सदेव सर्वं को नेच्छेत् स्वरूपादिचतुष्टयात् । असदेव विपर्यासात् चेन्न व्यवतिष्ठते ।। 15।। अर्थात् सभी पदार्थ किंचित सत् हैं और किंचित् असत् हैं। समस्त चेतन-अचेतन पदार्थ स्वद्रव्य, स्वक्षेत्र, स्वकाल और स्वभाव की अपेक्षा से सत्स्वरूप' हैं और परद्रव्य, परक्षेत्र, परकाल और परभाव की अपेक्षया असत्-स्वरूप' हैं। यदि ऐसा अपेक्षया स्वीकार न किया जाए, तो किसी इष्ट तत्त्व की व्यवस्था नहीं बन सकती। ___ 'सप्त' संख्या का भी अतिविशिष्ट महत्त्व है। इसे पूर्णपीठ माना गया है। लोक में भी 'सप्त' संख्यावाले अनेकों प्रयोग प्रचलित हैं, यथा--सप्ताह (सात दिन), सप्तपदी, सप्तसिंधु, सप्तऋषि, सप्तांगराज्य, सप्तव्यसनत्याग, सप्तस्वर, सप्तपरमस्थान, सप्तनरक, Jain E प्राकृतविद्या जनलरी-जून 2001 (संयुक्तांक) महावीर-चन्दना-विशेषांक.WOL 99y.org
SR No.003215
Book TitlePrakrit Vidya 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain, Sudip Jain
PublisherKundkund Bharti Trust
Publication Year2001
Total Pages148
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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