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रागादि रहित उपयोग, ज्ञायक प्रतिभासी हो । स्वाश्रित शाश्वत-सुख भोग, शुद्धात्म-विलासी हो ।। हे स्वयं सिद्ध भगवान, तुम साध्य बनो मेरे ।।३।। भविजन तुम सम निज-रुप ध्याकर तुम सम होते । चैतन्य पिण्ड शिवभूप होकर सब दु:ख खोते ।। चैतन्यराज सुखखान, दु:ख दूर करो मेरे ।।४।।
(६) रोम रोम पुलकित रोम-रोम पुलकित हो जाय, जब जिनवर के दर्शन पाय । ज्ञानानन्द कलियाँ खिल जाँय, जब जिनवर के दर्शन पाय ।। जिनमंदिर में श्री जिनराज, तनमंदिर में चेतनराज । तन-चेतन को भिन्न पिछान, जीवन सफल हुआ है आज ।। टेक।। वीतराग सर्वज्ञ देव प्रभु, आये हम तेरे दरबारा । तेरे दर्शन से निज-दर्शन, पाकर होवें भव से पार ।। मोह-महातम तुरत विलाय, जब जिनवर के दर्शन पाय ।।१।। दर्शन-ज्ञान अनन्त प्रभु का, बल अनन्त आनन्द अपार । गुण अनन्त से शोभित हैं प्रभु, महिमा जग में अपरम्पार ।। शुद्धातम की महिमा आय, जब जिनवर के दर्शन पाय ।।२।। लोकालोक झलकते जिसमें, ऐसा प्रभु का केवलज्ञान । लीन रहें निज शुद्धातम में, प्रतिक्षण हो आनन्द महान ।। ज्ञायक पर दृष्टी जम जाय, जब जिनवर के दर्शन पाय ।।३।। प्रभु की अन्तर्मुख-मुद्रा लखि, परिणति में प्रगटे समभाव । क्षणभूर में हों प्राप्त विलय को, पर-आश्रित सम्पूर्ण विभाव ।। रत्नत्रय-निधियाँ प्रगटाय, जब जिनवर के दर्शन पाय ।।४।।
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