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(२) रोम रोम से रोम-रोम से निकले प्रभुवर ! नाम तुम्हारा, हाँ नाम तुम्हारा । ऐसी भक्ति करूँ प्रभुजी ! पाऊँ न जनम दुबारा । टेक ॥। जिनमन्दिर में आया, जिनवर दर्शन पाया । अन्तर्मुख मुद्रा को देखा, आतम दर्शन पाया ।। जनम-जनम तक न भूलूंगा, यह उपकार तुम्हारा ||१|| अरहंतों को जाना, आतम को पहिचाना | द्रव्य और गुण - पर्यायों से, जिन सम निज को माना ।। भेदज्ञान ही महामंत्र है, मोह तिमिर क्षयकारा ।।२।। पंच महाव्रत धारुँ समिति गुप्ति अपनाऊँ । निर्ग्रन्थों के पथ पर चलकर, मोक्ष महल में आऊँ ।। पाप भाव की कुटिल कालिमा पुण्य भाव की मधुर लालिमा नष्ट करूँ दुखकारा ।।३ ॥ देव - शास्त्र - गुरु मेरे हैं सच्चे हितकारी । सहज शुद्ध चैतन्यराज की महिमा, जग से न्यारी । भेदज्ञान बिन नही मिलेगा, भव का कभी किनारा ||४ ||
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(५) अशरीरी सिद्ध भगवान
अशरीरी - सिद्ध भगवान, आदर्श तुम्हीं मेरे । अविरुद्ध शुद्ध चिदघन, उत्कर्ष तुम्हीं मेरे ।। टेक ॥। सम्यक्त्व सुदर्शन ज्ञान, अगुरुलघु अवगाहन | सूक्ष्मत्व वीर्य गुणखान, निर्बाधित सुखवेदन || हे गुण अनन्त के धाम, वन्दन अगणित मेरे ॥ १ ॥ रागादि रहित निर्मल, जन्मादि रहित अविकल । कुल गोत्र रहित निश्कुल, मायादि रहित निश्छल ।। रहते निज में निश्चल, निष्कर्म साध्य मेरे ।।२।।
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