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१८ मा केवल इनके विद्याभ्याससे प्रसन्न होकर सचीनके एक मुज्ञ गृहस्थ शेठ मानाजीने कईयोंके विरोध करने पर भी अपनी पुत्री केसरबाईका विवाह सं. १९३४ में इनसे करदिया तदनतर ये बडोदा कालेजमें भरती हुए. वहांसे प्रीवीयसको परीक्षा देकर इनको अपने भाईकी आज्ञानुसार उनके दूसरे विवाहका यत्न करनेके लिये पढना छोडकर सिरोही जाना पडा ये प्रथम रु० ४ महावारके नोकर हुवे. अपने बुद्धिबल और कार्यकुशलतासें इन्होंने सिरोही दरबारकी पूरी कृपा प्राप्त की. महकमे महालमें नोकरी करके पो० एजंट करनल पाऊलेट साहबके पास ये सिरोहीके एजंसी वकील मुकरर हुवे. जोधपुर, आबू, जेसलमेर आदिके दौरे में इन्होंने एजंट, दरबार आदिकी अच्छी कृपा संपादन की. सन १८८५ में उक्त कर्नल पाऊलेट साहबने इनको घाणेरावके ठाकुरके ट्यूटर मुकरर किये. इन्होंने मओ कॉलेजमें कर्नल लोक साहबसे अच्छी कृपा पाई और राजकुमारोंसे दोस्ताना पैदा किया इसके बाद जोधपुरके महाराजाधिराज कर्नल सर प्रतापसिंहजीके पास रहकर इन्होंने अच्छा यश पाया
और उनकी पूरी कृपा प्राप्त की. उनके और श्री जोधपुर दरबारके विलायतसे आनेपर मुंबईमें उनके सन्मानाथ बडी सभाका प्रबंध करके मानपत्र दिये थे. रायबहादुर मुनशी हरदयालसिंहजी इनको एक सच्चा प्रेमपात्र गिनते थे. वे जोधपुर में कई बार इनको अच्छा पद भी देने लगे थे. परंतु धाणेरावके नगरशेठ चेनाजी नरसोगजी उनके साझेमें इन्होंने सन १८८९ में “धी इंडीयन एंड फारिन एजंसी कुंपनी" खोली जो विलायती माल और रजवाडाका काम करके अच्छी तरह चल
बाद इनके उद्योगसे "धी रीपन प्रीटींग प्रेस कुं० ली०" स्थापित हुई. बहुतसे शेर अपने मित्रवर्गमेंही दिये, परंतु देखरेखकी कमी, और एजंट डीरेक्टरोंके कुसंपसे वह टूटगई, जिससे इनको बडा खेद हुआ और नुकसानभी पूरा रहा.
मुंबईमें आनेके बाद ये धर्मसेवा और सभा आदि कामोंमें लक्ष्य देने लगे. और हरेक धर्मसभामें अगुआ बनते हैं. इनकी वक्तृत्व और शीघ्र कविता बनानेकी शक्ति प्रसिद्ध है. नेशनल काँग्रेसमें, प्रोवीन्श्यल कॉनफरन्स आदि सभाओंमें ये बहुधा हिंदी कविता सुनाते हैं. जैन युनीयन क्लब, हेमचंद्राचार्य अभ्यास वर्ग, मेवाड मंदीर जीर्णोद्धार सभा, मुंबईकी जैन प्लेग होस्पीटल, एन्टीवीवीसेक्शन सोसायटी और कई कमीटीके ये सेक्रेटरी, और जैन तथा दूसरी सभाके मेंबर रहे हैं, और सन १९०२ में “गुजरात फीवर रिलीफ फंड" का प्रबंध सेक्रेटरी बनके इन्होंने बहुत सफलतासे चलाके सुवर्णपदक (चांद)प्राप्त किया है. जैन सीग्रेगेशन और हास्पीटलके संबंधी इनोंने बहुत परिश्रम उठाया था. गुल अफशान पत्रके ये एडीटर थे. और परमारध्यनकि रमुजी लेखको याद करते हैं. मुंबई समाचार और जैन पत्रोंके ये लेखक हैं, तथा ओत्सव, आत्मारामजी चरित्र, अमरकाव्य, जैन तीर्थावली, नियमावली आदि कई पुस्तक भी इन्होंने लिखी है. मी. वीरचंद गांधीके साथ अमेरिका जानेकी इनकी भी तयारी हुई थी, परंतु सांसारिक विघ्नसे रुक गये.
सन १८९९ में इनकी धर्मपत्नि जो पढी लिखी और धर्मिष्ट थी कालवश होगई, जिससे इनको दो पुत्र और दो पुत्री हुवे थे, परंतु अभी एकही पुत्री हीरावती है. इनका दूसरा विवाह सिरोहीमें हुवा.
इन्होंने मद्रास, कर्नाटक, दक्षिण, दिल्ली, आगरा, उत्तर हिंदुस्तान, पंजाब, काश्मीर, कांगडा, हिमालय, राजपूताना आदि प्रदेशोंमें बहुत मुसाफरी की है. और स्वपराक्रम तथा बुद्धिबलसें हजारोंही मित्र इनके होगये हैं.
इनपर कई तरहकी आपदाए आनेसे तत्वनिर्णयप्रासाद ग्रंथ देरसे प्रसिद्ध हो सका. परंतु इस ग्रंथको अद्वितीय बनानेमें इन्होंने पूरा परिश्रम किया है, और ग्रंथकी एक अच्छी प्रस्तावना लिखी है.
इनमें यह एक बड़ी बात है और इनका अनुभव हरेक लाइनमें इतना बढा हुआ है, कि कैसाही कठिन काम हो परंतु यह उसको पूरा करही देते हैं. परंतु प्रारब्ध इनकी तरफ कुछ टेढी नजरसे देख रहा है.
सन १९०३ के सितंबर में मुंबईमें दूसरी जैन ( श्वेतांबर ) कॉन्फरन्स जो भरी गई, उसकी इन्टेलिजंस, हेल्थ, एड वोलन्टीयर कमिटीके ये सेक्रेटरी मुकर्रर हुवे थे. कॉन्फरन्सका काम बहुतही अच्छी तरह इन्होंने बजाया जा इनकी पेश की हुई लबी रिपोर्टसें जाहर होता है. प्रेसिडंट आदिके पूरे प्रेमपात्री बने. वहां हानिकारक रीवाजोंके उपर उमदा भाषण भी दियाथा. और २०० वॉलंटीयरकी फोजने अपने कार्य, ड्रेस, और दमामसे सबको चकित कर दिये थे. इनको दीर्घायु चहाते हैं कि ये धर्मकार्यमें सदा कटिबद्ध हैं.
लेखक-भग फतेहचंद कारभारी ( एडिटर, जैनपत्र.)- एक सबा प्रिय मित्र,
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