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मी० अमरचंद पी० परमार ( सिरोही - सूरत - मुंबई.)
इनका जन्म सं. १९२० के महा सुदी ८ को हुवा था. ये मूल इलाके सिरोहीक झाडोली ग्रामके रहनेवाले हैं. इनके पूर्वज उदेपुर से आये थे और ये दसा ओसवाल बालफेना (बाफणा) परमार गोत्रके हैं. सर्पके फनसे बालकका रक्षण हुवाजिससे वाफणा कहलाये. कि इस गोत्र में सर्प के काटनेसें कोई नही मरा. मी. अमरचंद के परदादा शा. वजाजी राजाजीको चार पुत्र शा. पन्नाजी, ठाकरसी, दुर्लभजी, रणछोड़जी और देवजी हुए. शा. पन्नाजी और रणछोडजीका परिवार सूरतजिलेमें है और ठाकरसीका नाणा, मारवाड में है. शा. दुर्लभजीके पांच पुत्र शा. डाह्याभाई, परागजी, पदमाजी, गोविंदजी और हीराचंद थे. उनमें से तीन भाईयोंके कुंटुंबमें हरजी, पानाचंद, रामचंद, भगवान, उमेदचंद, पुनमचंद, माणेकचंद, मगन, दलीचंद आदि विद्यमान है. पदमाजीको झवेरचंद, नरसई, मूलचंद, अमरचंद, गुलाबचंद ये पुत्र और रामकोर और कंकुबाई नामक पुत्री हुई थी. उनमें से झवेरचंद, अमरचंद और बाई रामकोर विद्यमान है. झवेरचंदके तीन पुत्र धनराज, रायचंद और तलक चंद तथा तीन पुत्री हैं.
मी. अमरचंदके दादाने मारवाडसे आकर सूरत के पास बडोद, भेस्तान आदि ग्रामोंमें निवास करके अच्छा धन प्राप्त किया था. इनके पिता बहुतही भोले स्वभाव के थे इसलिये उनके दूसरे भाईओं ने उनको घरसें कुछ भी दिये बिना निकाल दिये थे, और उनको फेरी आदिसे अपना निर्वाह करना पडाथा. एकबार ऐसा भी कठिन समय इनपर आ पडा था कि एक पुत्रके जन्मके समय खर्च के रुपये के लिये उनको घर घर फिरना पडाथा. परंतु ईश्वर कृपासे फिर उनकी स्थिति अच्छी होगई थी. उनके भाई झवेरचंदने पिताको अच्छी मदद देकर उनके धंधेको ठीक जमा दिया था और लघुभाईको पिताकी इच्छानुसार सूरतमें जाकर पढाना आरंभ किया था. कडोद - गुजरातके रहनेवाले स्व० दलपतराम नथुराम व्यास इनके बालस्नेही थे, दोनों एक ही साथ पढ़ते थे. दोनोमें ऐसी गाढी मित्रता थी कि साधारणतः ऐसा स्नेह देखने में आताही नही हैं. वह मित्ररत्न सन १८९९ में इन्हीके मकान पर कालवश हुए, जिसका इनको पूरा रंज रहा.
इनकी बहन रामकोर छोटी अवस्थाहीसे विधवा होगई थी, परंतु उसी समय से उन्होंने धर्मविद्याका अभ्यास कर धर्मकार्यमें रुचि लगाई और समय २ पर भीड पडनके समय अपने भाईयोंको अभीतक मदद करती रही. मी. अमरचंद दस वर्षकी अवस्था में प्रथम गोपीपुरा ब्रांच स्कूलमें भरती हुए और चढते नंबर पास होकर पारितोषिक और मास्टरोंकी कृपा संपादन करते रहैं. पढने में इनका ऐसा अनुराग था कि एक समय इनके भाई किसी संबंधी विवाहमें जानेके लिये छुट्टी लेनेको मास्टर के पास जाने लगे परंतु इस बातकी इनको खबर मिलतेही इन्होंने अपने मास्टरसे खानगी में कह दिया कि मेरी छुट्टी स्वीकार मत करना.
का इनको बहुत अनुराग था, इसलिये इसी छोटी वयमें पुस्तकोंकी जिल्द बांधनी, साईन बोर्ड लिखना, न और रेशमके बढिया फूल - वृक्ष बनाना, एनग्रेविंग, ड्राइंग, प्लास्टर, घडी बनाना आदि कई काम
२ कर सीखलिये थे; और स्कूलके साथी इनको बहुत चाहते थे. ये गरीबी और सादगीसे पढते रहे; यहांतक किं पढनेकी पुस्तकें भी उधार लेकर अपना काम चलाते थे. थोडा |भ्यास होजानेपर इन्होंने एक रात्रिशाला खोली और दूसरे लडकोंको खानगी में पढ़ाकर अपने खरचेका झा पितापर नहीं पड़ने दिया. इनके मातापिताको सुख भोगनेका समय नहीं आया. सोला बरसकी उमरमें इनकी माताका स्वर्गवास होगया और बादमें इनके पिता भी इस संसारको छोड गये.
सन १८८२ में सूरत हायस्कूलसें इन्होंने मट्रीक्युलेशनकी परिक्षा पास की. मेसर्स पाठक, मोदक, वाडी आदि मास्टरोंकी पूरी प्रीति संपादान की थी. स्कूलमें कृषिशास्त्रका भी अभ्यास कर लिया. छोटी उमरसें इनको हिंदुस्तानी कवित्त याद करने और नये बनानेका बडा भारी प्रेम था. स्कूल के प्राईज - एक्झीबिशन मे सारा हॉल गुंजा देते थे; इन्होंने सूरतके डीस्ट्रीक्ट जज ( बादमें होईकोर्ट के जज और कौंसलर ) ऑन ० डा. बर्डवडकी और मंबईके ना. गवर्नर सर जेम्स फरग्युसनकी शीघ्र कविताइसे विशेष कृपा प्राप्त की थी.
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