________________
पत्रिंशःस्तम्भः। नैगम, और व्यवहार, अशुद्ध द्रव्यार्थिक है. और संग्रह शुद्ध द्रव्यको कहता है, इसवास्ते, शुद्धद्रव्यार्थिकनय है.
तदुक्तमनुयोगवृत्तौ ॥ " ॥ नैगमव्यवहाररूपोऽविशुद्धः कथं यतो नैगमव्यवहारौ अनंतद्वयणुकाद्यनेकव्यक्तात्मकंकृश्नाद्यनेकगुणाधारं त्रिकालविषयं चाविशुद्ध द्रव्यमिच्छतःसंग्रहश्च परमाण्वादिसामान्यादेकं तिरोभूतगुणकलापमविद्यमानपूर्वापरविभागं नित्यं सामान्यमेव द्रव्यमिच्छत्येव तच्च किलानेकताभ्युपगमकलंकेनाकलंकितत्वात् शुद्धं ततः शुद्धद्रव्याभ्युपगमपरत्वात् शुध्धमेवायमिति ॥” भाषार्थः नैगमव्यवहाररूपनय, अविशुद्ध है. क्योंकि, नैगमव्यवहार, अनंतद्वयणुकादि, अनेकव्यक्तात्मक. कृश्नादि अनेक गुणोंका आधार, त्रिकालविषय, ऐसें अशुद्ध द्रव्यको द्रव्य मानते हैं. और संग्रहनय, परमाणुआदि सामान्यसे एक तिरोभूत गुणसमूह अविद्यमान पूर्वापरविभाग नित्यसामान्यही द्रव्य मानता है. सो संग्रहनय, अनेकता माननेरूप कलंकसे अकलंकित होनेसें और शुद्ध द्रव्य माननेसें शुद्धद्रव्यार्थिक है. ___ अथ नैगमनयकी प्ररूपणा करते हैं:-नही है एक गम, बोधमार्ग, जिसका, सो नैगमनय है. पृषोदरादि होनेसें ककारका लोप जानना. तिस नैगमनयके तीन भेद हैं. धर्मद्वयगोचर (१) धर्मिद्वयगोचर (२) धर्मधर्मिगोचर (३). यहां धर्मीधर्म शब्दकरके, द्रव्य और व्यंजनपर्यायोंको कहते हैं. अथ प्रथमभेदमें उदाहरण कहते हैं. “। सच्चैतन्यमात्मनि इति ।" आत्मामें सत् चैतन्य धर्म है, यहां चैतन्य नाम व्यंजनपर्यायको, विशेष्य होनेसें, तिसकी मुख्यताकरके विवक्षा करी; और सत्ताख्यव्यंजनपर्यायको, विशेषण होनेसें, तिसकी अमुख्यता, गौणताकरके, विवक्षा करी है.। इविधर्मद्वयगोचरोनैगमः प्रथमः।१।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org