SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 792
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ षटूत्रिंशः स्तम्भः । ६८५ जैसा जैसा पदार्थ है, तैसा तैसाही प्रत्यक्ष ज्ञान उत्पन्न होनेसें और प्रपंच जो है, सो परस्पर, न्यारी न्यारी, जो वस्तु है, सो अपने अपने स्वरूपमें भावरूप है; और दूसरे पदार्थ के स्वरूपकी अपेक्षा अभावरूप है. इस इतरेतरविविक्त वस्तुयोंकोही प्रपंचरूप माना है. तो फिर, प्रत्यक्षप्रमाण, पंचको अनिर्वाच्य कैसें सिद्ध कर सकता है ? पूर्वपक्ष:- यह प्रत्यक्ष, हमारे पक्षको प्रतिक्षेप नही कर सकता है. क्योंकि, प्रत्यक्ष तो विधायकही है, तैसें तैसें प्रत्यक्ष ब्रह्मकोही कथन करता है, न कि, प्रपंच सत्यताको कथन करता है; प्रपंच सत्यता तो, तब कथन करी सिद्ध होवे, जेकर प्रत्यक्ष इतर वस्तुमें इतर वस्तुयोंके स्वरूपका निषेध करे; परंतु प्रत्यक्षप्रमाण तो ऐसा है नही, प्रत्यक्षको निषेध करनेमें कुंठ होनेसें. उत्तरपक्षः - प्रथम तुम विधायक किसको कहते हो ? पूर्वपक्ष:- यह ऐसे वस्तुस्वरूपको ग्रहण करे, और अन्यस्वरूपको निषेध न करे, ऐसा प्रत्यक्षही विधायक है. उत्तरपक्षः - यह तुमारा कहना असत्य है. अन्यवस्तु के स्वरूपके विना निषेध्यां, वस्तुके यथार्थ स्वरूपका कदापि बोध न होनेसें; पीतादिक वर्णोकरी रहित जब बोध होगा, तबही नील ऐसे रूपका बोध होवेगा, अन्यथा नही. तथा जब प्रत्यक्षप्रमाणकरके यथार्थ वस्तुस्वरूप ग्रहण किया जायगा, तब तो अवश्य अपर वस्तुका निषेध भी तहां जाना जायगा. जेकर प्रत्यक्ष, अन्यवस्तुमें अन्यवस्तुके निषेधको नही जानेगा तो, तिसवस्तुके इदमिति यह ऐसे विधिस्वरूपको भी जान सकेगा. क्योंकि, केवल जो वस्तु स्वरूपको ग्रहण करना है, सोही अन्यवस्तुके स्वरूपका निषेध करना है. जब प्रत्यक्षप्रमाणविधि, और निषेध, दोनोंही. को ग्रहण करता है, तब तो, प्रपंच, मिथ्यारूप कदापि सिद्ध न होगा. जब प्रत्यक्षप्रमाणसें प्रपंचही मिथ्यारूप सिद्ध न हुआ तो, परम ब्रह्मरूप एकही अद्वैत तत्त्व कैसें सिद्ध होगा ? तथा जो तुम प्रत्यक्षको नि करके विधायकही मानोगे, तब तो, विद्यावत् अविद्याका भी विधान तुमको मानना पडेगा; सो यह ब्रह्म, अविधारहित होनेकरके सन्मात्र Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003207
Book TitleTattvanirnaya Prasada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAmarchand P Parmar
Publication Year1902
Total Pages878
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy