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तत्त्वनिर्णयप्रासाद
पूर्वपक्ष:- भावरूप, तथा अभावरूप, येह दोनोंही प्रकारें वस्तु नही. उत्तरपक्षः - हम तुमको पूछते हैं कि, भाव, और अभाव, इन दोनोंका अर्थ, जो लौकिकमें प्रसिद्ध है, वोही, तुमने माना है ? वा इससें विपरीत और तरेका माना है ? जेकर प्रथम पक्ष मानोगे तो, जहां भावका निषेध करोगे, तहां अवश्यमेव अभाव कहना पडेगा; और जहां अभावका निषेध करोगे तहां अवश्यमेव भाव कहना पडेगा. जो परस्पर विरोधी है, उनमें एकका निषेध करोगे तो, दूसरेका विधि, अवश्य कहना - ही पडेगा. अथ दूसरा पक्ष मानोगे, तब तो हमारी कुच्छ हानी नही है. क्योंकि, अलौकिक एतावता तुमारे मनःकल्पित शब्द, और शब्दका निमित्त, जेकर नष्ट होजावेगा तो, लौकिकशब्द, और लौकिशब्दका निमित्त, कदापि नष्ट नही होगा; तो फिर, अनिर्वाच्य प्रपंच किसतरें सिद्ध होगा ? जब अनिर्वाच्यही सिद्ध नही होगा तो, प्रपंच मिथ्या कैसें सिद्ध होगा? और एकही अद्वैत ब्रह्म कैसें सिद्ध होवेगा ? निःस्वभावत्वपक्ष में भी, निस् शब्दको निषेधार्थके हुए, और स्वभावशब्दको भी भाव अभाव दोनोंमेंसें अन्यतर किसी एक अर्थ अर्थात् भावके, वा अभा के वाचक हुए, पूर्ववत् प्रसंग होवेगा.
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पूर्वपक्ष:- हम तो जो प्रतीत न होवे, उसको निःस्वभावत्व कहते हैं. उत्तरपक्षः - इस तुमारे कहने में विरोध आता है; जेकर प्रपंच प्रतीत नही होता तो, तुमने अपने प्रथम अनुमानमें प्रपंचको प्रतीयमान हेतुस्वरूपपणे क्योंकर ग्रहण किया ? और प्रपंचको अनुमान करने के समय धर्मीपणे क्योंकर ग्रहण किया ? तथा धर्मीपणे ग्रहण करे हुए, वो कैसें प्रतीत नही होता है ?
पूर्वपक्ष:- जैसा प्रतीत होता है, तैसा है नही. उत्तरपक्षः - तब तो यह, विपरीतख्याति, तुमने अंगीकार करी सिद्ध होवेगी. तथा हम तुमको पूछते हैं कि, यह जो तुम इस प्रपंचको अनिवीच्य मानते हो, सो प्रत्यक्षप्रमाणसें मानते हो ? वा अनुमानप्रमाणसें मानते हो ? प्रत्यक्षप्रमाण तो, इस प्रपंचको सत्स्वरूपही सिद्ध करता है.
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