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________________ षट्त्रिंशःस्तम्भः। ६७५ अथ प्रसंगसें व्याससूत्रके ३४ मे सूत्रके भाष्यका खंडन लिखते हैं.॥ तथाहि सूत्रम् ॥ “॥ एवञ्चात्माऽकात्य॑ म् ॥ ३४॥" शंकरभाष्यकी भाषाः-जैसें एकधर्मिविषे, विरुद्धधर्मका असंभवरूप दोष, स्याद्वादमें प्राप्त है, ऐसें आत्माको भी अर्थात् जीवको असर्वव्यापी मानना, यह अपर दोषका प्रसंग है. कैसे? शरीरपरिमाणही जीव है, ऐसें आहतमतके माननेवाले मानते हैं. और शरीरपरिमाण आत्माके हुए, आत्मा, अकृत्न असर्वगत है; जब मध्यमपरिमाणवाला आत्मा हुआ, तब घटादिवत्, अनित्यता आत्माको प्राप्त होगी; और शरीरोंको अनवस्थितपरिमाणवाले होनेसे मनुष्यजीव मनुष्यशरीरपरिमाण होके फिर किसी कर्मविपाक करके हाथीका जन्म प्राप्त हुए, संपूर्णहस्तिके शरीरमें व्याप्त नही होवेगा; और सूक्ष्म मक्खीका जन्म प्राप्त हुए संपूर्ण सूक्ष्म मक्खीके शरीरमें मावेगा नही. जेकर समानही यह जीव है, तब तो एकही जन्मविषे कुमारयौवनवृद्धअवस्थाओंविषे दोष होवेगा; शरीरकी सर्व अवस्थाओंमें शरीर व्यापक नही होवेगा, यह दोष होवेगा. जेकर कहोगे अनंत अवयव जीवके हैं, तिसके वेही अवयव अल्पशरीरमें संकुचित होजाते हैं, और महान् शरीरमें विकाश होजाते हैं. उत्तरः-उन अनंतजीवअवयवोंका समानदेशत्व प्रतिहन्यत है, वा नही? जेकर प्रतिघात है, तब तो परिच्छिन्नदेशमें अनंतअवयव नही मावेंगे; जेकर अप्रतिघात है, तब तो अप्रतिघातके हुए एकअवयवदेशत्वकी उपपत्तिसे, सर्वअवयव विस्तारवाले न होनेसें, जीवको अणुमात्रका प्रसंग होवेगा. अपिच शरीरपरिच्छिन्न जीवके अनंत अवयवोंकी अनंतता भी, नही होसकती है. इति ॥ ३४ ॥ इस पूर्वोक्त व्याससूत्रकी भाष्यका उत्तर लिखते हैं. ॥ तथाहि सूत्रम् ॥ “॥चैतन्यस्वरूपः परिणामी कर्ता साक्षाद्भोक्ता स्वदेहपरिमाणः प्रतिक्षेत्रं भिन्नः पौद्धलिकादृष्टवांश्चायमितिः॥" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003207
Book TitleTattvanirnaya Prasada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAmarchand P Parmar
Publication Year1902
Total Pages878
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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