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________________ षत्रिंशःस्तम्भः। ६७३ माननेसे अर्हन् तीर्थंकर, यथार्थ वक्ता सिद्ध हुआ. उनके कथनमें पुरुषोंको निःशंक प्रवर्त्तना चाहिये. उनके साधन अनुष्ठानोंमें भी अनाकुल प्रवृत्ति सिद्ध होगई. इसवास्ते तीर्थंकरोंका कहनाही, सत्य और उपादेय है, नतु अन्योंका, अयौक्तिक होनेसें. पुनरपि शंकरस्वामी लिखते हैं, “ पंचास्तिकायके संख्यारूप पंचत्व है वा नही ? इत्यादि समाप्तिपर्यंत." इसका उत्तरः-पचत्वसंख्या पंचत्वरूपकरके अस्तिरूप है, और अन्य संख्यायोंके स्वरूपकरके नास्तिरूप है; इसवास्ते संख्या, हीनाधिकरूपवाली नहीं है. तथा पूर्वोक्त सात पदार्थ एकांत अवक्तव्यरूप नहीं है, किंतु कथंचित् अवक्तव्यरूप है. युगपत् उच्चारणकी अपेक्षाअवक्तव्य है, परंतु क्रमकी अपेक्षा अवक्तव्य नहीं है. इसवास्ते पूर्वोक्त लिखना शंकरखामीकी बेसमझीसें है. तथा जो पदार्थ स्वचतुष्टय और परचतुष्टयकी अपेक्षा जैसा है, तिसको वैसाही अस्तिनास्तिरूपसें कथन करना, और मानना, उसका नाम सम्यग्दर्शन है; और इससे विपरीत असम्यग्दर्शन है. सम्यग्दर्शन, अपने स्वरूपकरके अस्तिरूप है; मिथ्यारूपकरके नही. और असम्यग्दर्शन भी, अपने स्वरूपकरके अस्तिरूप है, परस्वरूपकरके नही. स्वर्ग मोक्ष भी, अपने २ स्वरूपकरके अस्तिरूप है, और नरकादिरूपकी अपेक्षा नास्तिरूप है. तथा नित्य जो है, सो द्रव्यकी अपेक्षा है; और अनित्य जो है, सो पर्यायरूपकी अपेक्षा है. इसवास्ते हमारे जैनमतमें अवधारितही वस्तु है, इसवास्ते प्रवृत्ति है. अनादिसिद्धजीवादिपदार्थ भी अपने २ स्वचतुष्टयकी अपेक्षा अस्तिरूप है, और परचतुष्टयकी अपेक्षा नास्तिरूप है. इसवास्ते अनिश्चितरूपका प्रसंग नहीं है, ऐसेंही एकधर्मी में स्वरूप अपेक्षा सत्, पररूप अपेक्षा असत् धर्मोंका संभव है. स्वरूपकरके वस्तुमात्र सत् है, और पररूपकरके असत् है. इसवास्ते आहतमत ठीक सत्य है. इसकहनेकरके एक अनेक, नित्य अनित्य, व्यतिरिक्त अव्यतिरिक्तादि धर्मधर्मी में द्रव्यपर्याय भेदाभेदनयमतसे सर्व सत्य है. परंतु शंकरखामीने जो कुछ जैनमतके खंडनवास्ते खंडन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003207
Book TitleTattvanirnaya Prasada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAmarchand P Parmar
Publication Year1902
Total Pages878
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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