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षट्त्रिंशःस्तम्भः। स्तिकाय ३, अधर्मास्तिकाय ४, आकाशास्तिकाय ५. और इनके मतिकल्पनासें अनेक भेद कहते हैं. और सर्व पदार्थों में इस सप्तभंगीका समवतार करते हैं. स्यादस्ति, स्यान्नास्ति २, स्यादस्ति च नास्ति ३, स्यादवक्तव्यः ४, स्यादस्ति चावक्तव्यश्च ४, स्यान्नास्ति चावक्तव्यश्च ६, स्यादस्तिच नास्तिचावक्तव्यश्च ७. ऐसेंही एकत्वनित्यत्वादिकोंमें भी सप्तभंगी जोड लेनी. . शंकरस्वामीः-यह पूर्वोक्त जैनीयोंका मानना ठीक नहीं है. क्योंकि, एक धर्मिमें युगपत् अर्थात समकालमें सत् असत् आदि विरुद्ध धर्मोका समावेश नहीं हो सकता है, शीतउष्णकीतरें. और जो येह सात पदार्थ निश्चित करे हैं, येह इतनेही हैं, और ऐसेंही स्वरूपवाले हैं, वे पदार्थ तथा अतथारूपकरके होने चाहिये. तब तो, अनिश्चयरूप ज्ञानके होनेसें संशयज्ञानवत् अप्रमाणरूप हुआ.
पूर्वपक्षी जैनीः-अनेकात्मक जो वस्तु है, सो निश्चितरूपही है; और उत्पद्यमानज्ञान, संशयज्ञानवत् अप्रमाणिक भी नही होसकता है..
उत्तरपक्षी शंकरस्वामीः-पूर्वोक्त कहना ठीक नहीं है. क्योंकि, निरंकुशही अनेकांतपणे सर्व वस्तु माननेसें जो निश्चय करना है, सो भी, वस्तुसें बाहिर न होनेसें स्यात् अस्ति स्यात् नास्ति इत्यादि विकल्पोंके होनेसें अनिर्धारितरूपही होजावेगा. ऐसेंही निर्धारण करनेवाला, और निर्धारण करनेका फल भी होजावेगा. पक्षमें अस्ति और पक्षमें नास्ति होजावेगी. जब ऐसें हुआ, तब, कैसे प्रमाणभूत वो तीर्थंकर अनिर्धारित प्रमाण प्रमेय प्रमाता प्रमिति विषय उपदेशक होसकता है ? और कैसें तीर्थंकरके अभिप्रायानुसारी पुरुष तिसके कहे अनिश्चितरूप अर्थमें प्रवर्त्तमान होवे ? क्योंकि, एकांतिक फलके निश्चित होनेसेंही तिसके साधनोंके अनुष्ठानोंमें सर्व लोक अनाकुल प्रवर्तते हैं, अन्यथा नही. इसवास्ते अनिश्चितार्थ शास्त्रका कहना उन्मत्तके वचनकीतरें उपादेय नही है. तथा पंचास्तिकायका संख्यारूप पंचत्व है, वा नही? एकपक्षमें है, दूसरेमें नही; तब तो, संख्या भी हीन वा, आधिक हो जावेगी. तथा पूर्वोक्त पदार्थ अवक्तव्य नही; जेकर अवक्तव्य होवे तब तो, कहने न चाहिये, परंतु कहते हैं.
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