________________
६६८
तत्त्वनिर्णयप्रासादउपकारियोंने एक उपकार करना विरोध है. ॥ ५॥ गुणिके देशको एक एक गुणप्रति, भिन्नभिन्न होनेसें; यदि गुणिदेश भिन्नभिन्न, न होवे तो, पृथक् २ (जूदे २) अर्थोंके गुणोंका भी गुणिदेश एक होना चाहिये. ॥६॥ संसर्गको भी एक एक संसर्गवाले साथ जूदाजूदा होनेसें; यदि संसर्ग एक होवे तो, संसर्गवालोंका भेद न होना चाहिये. ॥ ७॥ शब्दको भी विषयविषयप्रति भिन्नभिन्न होनेसें; यदि सर्वगुण एकशब्दके वाच्य होवे तो, सर्व अर्थोंको एकशब्दके वाच्य होने चाहिये. और अन्य सर्वशब्द निष्फल होने चाहिये. ॥ ८॥ वास्तवसें अस्तित्वादिधर्मोंका एक वस्तुमें इस पूर्वोक्त रीतिसें अभेद न होनेसें कालादिकोंकरके भिन्न २ स्वरूपवाले धर्मोका अभेदोपचार होवे है. सो पूर्वोक्त अभेद अथवा अभेदोपचार, इन दोनोंकरके प्रमाणसिद्ध अनंतधर्मात्मक वस्तुको एककालमें कथन करे, ऐसा जो वाक्य सो सकलादेश है. प्रमाणवाक्य यह इसीका दूसरा नाम है. ॥ इतिसप्तभंगीस्वरूपवर्णनम् ॥ __ अथ इस पूर्वोक्त सप्तभंगीका खंडन, चार वेदके संग्रहकर्ता व्यासजीने, अपने रचे व्याससूत्रके दूसरे अध्यायके दूसरे पादके ३३॥३४॥३५॥ ३६॥ मे सूत्रोंमें जैनमतका खंडन किया है, तिनमें तेतीसमे सूत्रमें “सप्तभंगी” का खंडन लिखा है, सो दिखाते हैं.
तथाहि सूत्रम् ॥ “ ॥ नैकस्मिन्नसंभवात् ॥३३॥" - अर्थः-एकवस्तुमें सप्तभंग नहीं हो सकते हैं, असंभव होनेसें. ॥ इस व्याससूत्रका भाष्य शंकरस्वामीने किया है, तिसका खुलासा भाषामें लिखते हैं. , शंकरस्वामी लिखते हैं:-जैनी सात पदार्थ मानते हैं; जीव १, अजीव २, आस्रव ३, संवर ४, निर्जरा ५, बंध ६, मोक्ष ७, और संक्षेपसें, जैनी, दोही पदार्थ मानते हैं. जीव १, अजीव २. पूर्वोक्त सातों पदार्थोंको इन जीव अजीव दोनोंहीके अंतर्भाव मानते हैं. और पूर्वोक्त दोनोंका प्रपंच पंचास्तिकायनाम मानते हैं; जीवास्तिकाय १, पुद्गलास्तिकाय २, धर्मा
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org