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षट्त्रिंशःस्तम्भः ।
६५९ जो सप्तभंगीका खंडन लिखा है, सो, जैनमतानुसार है, वा अन्यथा है ? और शंकरस्वामीको जैनमतकी सप्तभंगीका बोध, यथार्थ था, वा अयथार्थ था ?
जैनमत माननेवालोंको प्रथम सप्तभंगीका स्वरूप जानना चाहिये. क्योंकि, सप्तभंगीही, जैनीयोंके प्रमाणकी भूमिकाको रचती है. दुर्दम जो परवादीयोंके वादरूप हाथी है, उनके पकडने अर्थात् पराजय करनेवास्ते, और अपने सिद्धांतके रहस्य जाननेवास्ते, श्रेष्ठ जे वादी है, वे सम्यक् प्रकारसें सप्तभंगीका अभ्यास करते हैं.। यदुक्तं ॥
या प्रश्नाद्विधिपर्युदासाभदया बाधच्युता सप्तधा । धर्म धर्ममपेक्ष्य वाक्यरचना नैकात्मके वस्तुनि ॥ निर्दोषा निरदेशि देव भवता सा सप्तभंगी यया ।
जल्पन जल्परणांगणे विजयते वादी विपक्षं क्षणात् ॥१॥ भावार्थ:-प्रश्नवशसें विधि, और पर्युदास, भेदकरके अनेकात्मक वस्तुमें, एक एक धर्मकी अपेक्षा, सातप्रकारकी सर्वप्रमाणोंसें अबाधित, और निर्दोष, जो वचनकी रचना है, सो सप्तभंगी है. हे अर्हन् ! देव ! ईश्वर ! ऐसी सप्तभंगी, तुमने कथन करी है, जिस सप्तभंगीकरके, वादरूपी ये संग्राममें, वादी, प्रतिवादीयोंको एकक्षणमें जीत लेते हैं. ॥१॥ तथा यह जो शब्द है, सो यत् किंचित् सदंश, असदंश, भंगकरके अपने अर्थको प्रतिपादन करता हुआ, सप्तभंगहीको प्राप्त होता है. सर्वजगे यह ध्वनि विधिनिषेधकरके अपने अर्थको कहता हुआ, सप्तभंगीको प्राप्त होता है; यह तात्पर्यार्थ है. सो सप्तभंगी, कैसे स्वरूपवाली है ? उसका लक्षण कहते हैं.
" ॥ एकत्र वस्तुनि एकैकधर्मपर्यनुयोगवशात् अविरोधेन व्यस्तयोः समस्तयोश्च विधिनिषेधयोः कल्पनया स्यात्कारांकितः सप्तधा वाक्प्रयोगः सप्तभंगीति ॥"
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