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पंचत्रिंशःस्तम्भः।
६४९ सुनकर सरस्वतिने शंकरस्वामीका पूजन करा. शंकरस्वामीने भी शारदापीठमें कितनेक काल वास किया, वहांसें केदार गये, और मृत्युको प्राप्त हुए. ॥ इति संक्षेपतः शंकरविजयानुसारिशंकरस्वामिखरूपकथनम् ॥ __ अब हमको जो कछुक कहना है, सो लिखते हैं. जो ब्राह्मणादि लोक कहते हैं कि, शंकरस्वामीने जैन बौद्धोंके वेडे भरके डुबवा दीए थे, सो कहना मिथ्या है. क्योंकि, जब भगंदर हुआ पीछे शारदामठमें वास किया है, और मरनेके थोडेसें दिन बाकी (शेष) थे, तब तो, 'जैन' 'बौद्ध' 'पतंजलि' आदि वादी, विद्यमान लिखे हैं. और शंकरविजयोंमें भी, पूर्वोक्त लेख नहीं है. इसवास्ते पूर्वोक्त ब्राह्मणादिकोंका कहना, महामिथ्या है. निःकेवल मिथ्यामतको मिथ्या बोलके सच्चा करा चाहते हैं, खामी दयानंदसरस्वतिवत्. __ और पतिकेसंगमविना, आनंदगिरिने शंकरस्वामीकी माताजीके गर्भमें शंकरस्वामीकी उत्पत्ति लिखी है, सो प्रमाण बाधित है. क्योंकि पुरुषवीर्यको स्त्रीकी योनिमें प्रवेश करेविना, कदापि गर्भकी उत्पत्ति नहीं होती है; यह कहना प्रमाणसिद्ध है. इस कालमें पाश्चात्य विद्वानोंने सायन्स (SCIENCE) विद्याके बलसें अनेक वस्तुयोंके संयोगसे अनेक कार्यकी उत्पत्ति कर दिखलाइ है, परंतु किसी भी पदार्थोंके मिलापसे मनवाले मनुष्यकी उत्पत्ति, स्त्री पुरुषके संयोग, वा पुरुषवीर्यको स्त्रीकी योनिमें प्रवेश करेविना, नही कर सकते हैं. ऐसा तो किसी कालमें भी नहीं हो सकता है कि, स्त्री पुरुषके संगमविना, वा पुरुषवीर्य स्त्रीकी योनिमें प्रवेश करेविना, स्त्रीको गर्भकी उत्पत्ति होवे. परंतु मतानुरागी पुरुष, अपने मताध्यक्षपुरुषको, विना पिताके वीर्यसें उत्पन्न होना लिखते हैं, सो, मूढोंको आश्चर्य करनेकेवास्ते, वा व्यभिचार छिपानेकेवास्ते, और अपने मताध्यक्षकी अन्य मनुष्योंसें उत्तमता जनानेकेवास्ते, और ईश्वरकी अत्यद्भुत शक्ति प्रसिद्ध करनेके वास्ते, लिखते हैं. परंतु यह नहीं जानते थे कि, ऐसें अप्रमाणिक लेखको प्रेक्षावान् कदापि नहीं मानेंगे, और ऐसे लेखसे उनकी मातुश्रीको
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