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________________ ६४६ तत्त्वनिर्णयप्रासाद नही कहना चाहिये, जीवके निर्गमके हुये फिर प्राप्ति के अभाव से स्वप्नांतरमेंही मरण प्रसक्ति है, चौवीस तत्त्वोंमेंही लिंगशरीका अंतर्भाव होनेसें उसकी कल्पना व्यर्थ हैं. भूतजाति इंद्रियोंको तद्रूप होनेसें. इसवास्ते इस क्लिष्ट कल्पना करनेसें कोइ प्रयोजन नही है, तिसवास्ते एकही देह भिन्न २ जीवोंके है, तिसके पातानंतर जीवकी मुक्ति है. उत्तरः- तब शंकरस्वामीने कहा. हे जैन ! तूं मूढतर है, तूने तत्त्व नही सूना है, पंचीकृत भूतोंकर के पच्चीस (२५) संख्या हुई है, तिसकरके चौवीस (२४) तत्व हुए हैं, पंचविंशति (२५) संख्याको ज्ञानरूप होनेसें, चौबीसी (२४) करकेही देह सिद्धि होवेगी, ऐसें नही है. अपंचीकृतपंचभूतके अभावसें, इस कारणसें, पंचीकृत और अपंचीकृत भूतोंकरके देहकी सिद्धि कहनी चाहिये, इसवास्ते स्थूल अपेक्षाकरके लिंगशरीर अंगीकार किया है. स्थूलशरीरके पातानंतर, जीव, सूक्ष्मशरीर आसक्त हुआ, परलोक गमनारंभ होता है, और अरूढ पुरुषके लिंगशरीरके नाश हुए, सर्व मनमेंही अध्यस्त होवे है. और सो शुद्ध मन तो जाग्रदादि अवस्था स्वामीयोंसें विश्व तैजस प्राज्ञोंसें भी ऊपर विराजमान, अंगुष्टमात्र सर्व जगत् प्रभु मनोन्माख्यको प्राप्त होता है, सोही कारण शरीरका लय है, ऐसा प्रसिद्ध है. ऐसें तीनो शरीरोंके नष्ट हुए, सगुण, निर्गुण, उभयात्मक, मनोन्मनपरमात्मामें लीन होता है; सोही मोक्ष है. ऐसें सर्व अतीतेंद्रिय ज्ञानवानोंने कहा है. ऐसा अत्यंत दुःसाध्य मोक्षकी प्राप्ति देहपातके अनंतर नही संभव होती है, ऐसा सिद्धांत है; ऐसा शंकरस्वामीने कहा हुआ, जैन, शिष्योंके साथ स्ववेषभाषासें रहित होया हुआ शंकरस्वामीका दिनप्रति चावलादि वस्तु आकर्षणशील वणिगूजन ( मोदी ) होता भया. ॥ इत्यनंतानंदगिरिकृतौ जैनमत निवर्हणं नाम सप्तविंशं प्रकरणम् ॥ और जो माधवने द्वादश (१२) श्लोकोंमें जैनमतके सप्ततत्त्व, और सप्तभंगीका खंडन, अपने रचे विजय में लिखा है, सो व्यासकृत सूत्रकी शंकररचित भाष्य के अनुसारे लिखा है, तिसका उत्तर आगे चलके ख Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003207
Book TitleTattvanirnaya Prasada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAmarchand P Parmar
Publication Year1902
Total Pages878
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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