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________________ पंचत्रिंशःस्तम्भः। ६४५ है, सदा 'अर्हन् ' ऐसा वारवार उच्चारन करता हुआ, शून्यांकशून्यपुंड्र धृतविंदु पुंड्र, शिष्योंसहित पिशाचवत्, सर्व जनको भयंकर, आकरके सकल लोकगुरु शंकरस्वामीको यह कहता हुआ; भो स्वामिन् ! मेरा मत अत्यंत सुगम है, तुम श्रवण करो. जिनदेव सर्वज्ञ सर्वका मुक्तिदाता है; 'जि' इस पदके वाच्य 'जीव' को 'न' इति पदकरके "पुनर्भव' ऐसा, सोही दिव्यत इति 'देव' है. सर्व प्राणियोंके हृदयकमलोंमें जीवरूपसें व्यवस्थित है ऐसें ज्ञानमात्रसें, देहके पात होनेसें अनंतर मुक्ति है, जीवको नित्य मुक्तिरूप होनेसें, तिससे करचरणादि साधनारा जो जो कर्म किया है, सो सत्य है, तिसको तिसके आधीन होनेसें. इसवास्ते जीव शुद्ध है, और देह मलपिंड है, स्नानादिकरके तिसकी शुद्विका अभाव होनेसें वृथा प्रयोजन है, इसवास्ते स्नानादि कर्म करने योग्य नहीं हैं. ऐसें प्राप्त हुआ सिद्ध हुआ.। इति जैनमतपूर्वपक्षः ॥ श्रीपरमगुरु कहते हैं, भो जैन ! तूने अति मूढने क्या कहा ? जीवकी जो देहकी निवृत्ति सोही मुक्ति है? और निःप्रयोजन होनेसे स्नानादिकर्म करना योग्य नही, यह तेरा कथन अयुक्त है. क्योंकि, जीवके तीन तरेंके देह हैं. स्थूल १, सूक्ष्म २, कारण ३, भेदसें. और स्थूलका लक्षण, पंचीकृतपंचमहाभूतखरूप है, सो, चौवीस (२४) तत्त्वात्मक है. । १ । सूक्ष्मका सतारें (१७) तत्त्वात्मक लक्षण है, एकादश (११) इंद्रिय, पंचमहाभूत ५, और बुद्धि १, एवं सप्तदश (१७). । २। और कारण अज्ञानमात्र है. । ३। और स्थूलका सूक्ष्ममें, सूक्ष्मका कारणमें, कारणका सगुणमें, सगुणका निर्गुणपरमात्मामें, तिस तिस अधिपतिविशिष्ट देहोंका ऐसें लय हुए, सत्चिदानंदलक्षणलक्षित परमात्माही, जीव होता है. और जीव है, सोही, परमात्मा है. तैसें भेदभ्रमकी निवृत्ति हुए, मुक्ति है, ऐसें निरवद्य है. पूर्वपक्षः-प्रत्यक्ष देखे शरीरसे शरीरांतर कल्पना निरर्थक है, तिसके होने में प्रमाणका अभाव होनेसें. यदि है तो, जीवका तीनो शरीरोंमें संचार कथन करना चाहिये, मनःकल्पित स्वप्नमें मैंने गंगा देखी है, हिमवान् देखा है, ऐसा ज्ञान तो है. क्योंकि, देहसे आत्माके निर्गमनको युक्त होनेसें, कारण शरीरत्वके हुये मनके कल्पित जीवका भी निर्गम Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003207
Book TitleTattvanirnaya Prasada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAmarchand P Parmar
Publication Year1902
Total Pages878
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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