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________________ जीको लेआया था; परंतु यहां तो, उलटे श्रीचंदनलालजी भी, फस गये !” श्रीआत्मारामजीने भी अयोग्य समझके उपेक्षा करली. श्रीचंदनलालजीने जाकर अपने गुरु "रुडमल्ल' जीको श्रीआत्मारामजीका कहना सुनाया. तब रुडमल्लजीने कहा, "श्रीआत्मारामजीका कथन सत्य है, हम भी ऐसेही मानेंगे, प्रथम भी हमारे मनमें कितनेही संदेह थे, सो अब निकल गये.” ऐसे श्रीरुडमल्लजीने भी शुद्ध श्रद्धान अंगीकार करलिया. बाद शेषकाल और और ठिकाने विचरके संवत् १९२५ का चौमासा श्री आत्मारामजीने “बडौत ” गाममें किया; जहां “ नवतत्त्व” ग्रंथ समाप्त किया. जिस ग्रंथको देखनेसेंही, ग्रंथकर्ताका बुद्धिवैभव मालुम होताहै. इधर पंजाब देशमें, "श्रीआत्मारामजी” की श्रद्धावालोंकी कुच्छ वृद्धि होती देखके, ढुंढकोंके पूज्य अमरसिंघजीने, एक लेख ( मेजरनामा) तैयार कराया; जिसमें लिखवाया कि, “ जो कोई जिन प्रतिमाके माननेका, वा पूजनेका उपदेश करे, डोरेके साथ मुखपर बंधीहुई मुहपचीको निंदे,(अर्थात् न माने,) और बावसि अभक्ष्य (नहीं खाने योग्य वस्तुओं) का नियम करावे, उसको, अपने समुदायसे बाहर निकाल देना." ऐसा लेख लिखवाके, सब साधुओंके प्रायः हस्ताक्षर करालिये, जिसमें श्रीआत्मारामजीके गुरु, “जीवणमल्लजी” के भी छल करके दसखत करालिये. और “जीवणमल्ल, " " पन्नालाल " वगैरह चार साधुओंका लेख देकर "श्रीआत्मारामजी के पास, दसखत करानेके वास्ते भेजे, और दिल्लीके तरफ ऐसे पत्र लिखवा भेजे कि, “आत्माराम”की श्रद्धा जिन प्रतिमा पूजनेसे मुक्ति माननेकी,बावीस अभक्ष्य वस्तु नहीं खानेकी और मुखोपरि डोरेसें मुहपत्ती नहीं बांधनेकी होगई है. इसवास्ते हमने उसको इस देशसे निकाल दिया है, तुम भी अपने देशमें आत्मारामको रहने मत दो तथा आत्मारामकी संगत मत करो. पंजाब देशमें भी गामोगाम और शहर शहर, पत्र भेजवाये कि, “ आत्मारामकी श्रद्धा भ्रष्ट होगई है, इसवास्ते तुम आत्मारामकी संगत मत करो. परंतु जो लोग जानते थे कि, श्रीआत्मारामजी जैनमतके शास्त्रानुसारही, कथन करते हैं, और ढुंढक लोग अपनी मनःकल्पित बाते बताते हैं वे लोग तो, पत्र को देखके पत्र भेजने भेजवानेवालोंकी हांसी करने लगे, और कहने लगे कि, “ढुंढक लोक फक्त दूर दूरसेंही तडाके मारते हैं. परंतु श्रीआत्मारामजीके सामने, कोई भी नहीं हो सकता है, जिसका मूलकारण यह है कि, ढुंढकलोक " व्याकरण” को “ व्याधिकरण १ मानके तिसका अभ्यास नहीं करते हैं. और श्रीआत्मारामजीके परिवारमें तो, प्रायः व्याकरणका प्रचार मुख्य है. यह तो प्रगटही है कि, “ विहानके साथ मूर्खकी बात होही नहीं सकती है." जीवणमल्ल, पन्नालाल वगैरह साधु, अमरसिंघजीका दिया हुवा लेख लेकर, विहार करके "कांधला” गाममें आये कि जहां "श्रीआत्मारामजी" बडौतमें विहार करके आये हुए थे और "श्रीआत्मारामजी” से मिले तब जीवणमल्लजी तो चूपही रहे, और पन्नालालने 'श्रीआत्मारामजी से कहा कि, "तुम भी, इस लेखपर अपने दसखत कर दो; अन्यथा समुदायसें बहार होना पडेगा.” तब श्री आत्मारामजीने कहा कि, “मेरे गुरुजी तो कुच्छ भी नही कहते हैं,तो तू दसखत करानेवाला कौन है" ? सुनकर पन्नालाल तो, कांपने लग गया. और जीवणमल्लजीने कहा कि, “में क्या करूं ? मेरेपास, जोरावरी दसखत छल करके करा लिये हैं.” तब श्रीआत्मारामजीने कहा कि, “ महाराजजी! आप कुच्छ चिंता न करें; मैं आपही संभाल लेऊंगा." Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003207
Book TitleTattvanirnaya Prasada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAmarchand P Parmar
Publication Year1902
Total Pages878
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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