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________________ (५१) ये गणेशीलाल श्री "बूटेरायजी" से संवेगी दीक्षा लेकर "विवेक विजय” नामसें विचरने लगा, और ठिकाने ठिकाने कहने लगा कि, "श्रीआत्मारामजीके अंदर शुद्ध सनातन जैनमतको श्रद्धा होगई है; और प्रत्यक्षमें ढुंढक भेष, और व्यवहार रक्खा है. परंतु ढुंढकमतकी आस्था, बिलकुल नहीं है" इसके ऐसे अनुचित समयमें इसतरहके कथनसें, और पूर्वोक्त काररवाई अंगीकार करनेसें कितनेही शहरोंके लोगोंको सनातन जैनमतकी शुद्द श्रद्धा प्राप्त होनी बंध होगई. क्योंकि, बहुत अनजान लोकोंने विनाही समझे हठ कदाग्रह करके श्रीआत्मारामजी वगैरहके पास जाना आना बंध करदिया.* जालंधरसें विहार करके श्रीआत्मारामजी, "हुशीआरपुर” गये. और संवत् १९२३ का चौमासा वहांही किया; जिस चौमासेमें “भक्त नथ्थुमल्ल, बिल्लामल्ल, मानामल्ल' वगैरह बहुत लोकोंने शुद्ध सनातन जैनमतका श्रद्धान अंगीकार किया. और लाला "गुज्जरमल्ल' वगैरह कितनेक अं. तरंग शुद्ध श्रद्धानवाले थे, उनका श्रद्धान परिपक्क होगया. चौमासे बाद हुशीआरपुरसें विहार करके दिल्लीशहर तरफ गये, और संवत् १९२४का चौमासा,दिल्लीसें विहार करके जमना नदीके पार, "बिनौली गाममें जा किया; जहां भी कितनेही लोकोंने सनातन जैनधर्मका श्रद्वान अंगीकार किया. इस चौमासेमें श्रीआत्मारामजीने "नवतत्त्व" ग्रंथ बनाना शुरु किया; चौमासे बाद विचरते विचरते “डोंगर" नाम गाममें गये, जहां एक "रणजीतमल्ल' ओसवाल जो मारवाडसें पंजाब देशको रामबक्षके साथ आयाथा, श्रीआत्मारामजीको मिला; तब श्रीआत्मारामजीने तिसको पुराणा मिलापी समझके, यथार्थ तत्त्वका स्वरूप सुनाया; क्योंकि, प्रथम भी जयपुर दिल्ली वगैरहके चौमासेमें श्रीआत्मारामजी "रणजीतमल्ल” को कई प्रकारका ज्ञान पढाते रहेथे. इस बातसें रणजीतमल्लके मनमें शक पैदा होनेसे ढुंढक “चंदनलालजी” साधुको, (जो जोगराजीये ढुंढक रुडमल्लजीके चेले थे-"श्रीआत्मारामजी" भी जोगराजियही कहातेथे) श्रीआत्मारामजीके पास ले आया. चंदनलालजीने "श्री आत्मारायजी से साधुके उपगरण, और प्रतिक्रमण संबंधी वातचित करी, तब "श्रीआत्मारामजी" ने शास्त्रके पाठ, चंदनलालजीको दिखलाया. देखतेही “श्रीचंदनलालजी" ने "श्रीआत्मारामजी का कहना, सत्य सत्य अंगीकार करलिया; परंतु रणजीतमल्लने हठ नहीं छोडा, और कहने लगा कि, मेरे साथ तो ऐसा हुआ, " लेनेगई पुत, खो आई खसम " " मैं तो श्रीआत्मारामजीको समझानेके वास्ते, श्रीचंदनलालप्रसिद्ध हुये. जिनमें भी श्रीमद्विजयानंदसूरि ( आत्मारामजी ) अधिकतर प्रसिद्ध हुए हैं. तिन पांच शिष्यों के नाम-(१) श्रीमुक्तिविजयजी गणि (मूलचंदजी) (२) श्रीवृद्धिविजयजी (वृद्धिचंदजी) (३) श्री नीति विजयजी (४) श्रीखातिविजयजी (५) श्रीमद्विजयानंदसूरि (आत्मारामजी) जिनमेंसें श्रीमुक्तिविजयजीकी छबी मिली नहीं, दूसरे महात्माओंको छ बो आगे देखलेवें. * इस समयमें भी ऐसेही होरहाहै. संवेगी साधुके पास कोई जाना न पावे, इसवास्त दुंढक साधु हरएक अपने श्रावक जो कि कोरे रहगये हैं,तिनको प्रतिज्ञा प्रायः कराते हैं कि संवेगी साधुके पास जाना नही, तिनका उपदेश सुनना नही, तिनको वंदना करनी नही, अहार पानी देना नही; जैसे कि पिछले दिनोंमें श्रीआत्मारामजी पशरुर में गयेथे, जहां पानीके न मिलनेसें उसही दिन पीछली पहरको विहार करना पडा; होय, ! अफसोस ! कैसी समझ!! ढुंढकश्रावकोंमे भी कितनेक हठग्राही अनजानोंने ऐसा बंदोबस्त प्रायः कियाहै कि “संवेगी साधु आवे, उसके पास जावे, पचास दंड पावे, नहीं तो जात बहार थावे." ऐसा सुननेग आता है. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003207
Book TitleTattvanirnaya Prasada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAmarchand P Parmar
Publication Year1902
Total Pages878
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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