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________________ ६१८ तत्त्वनिर्णयप्रासादभाषार्थः-यदि दर्शनसम्यक्त्व करके स्त्री, शुद्ध है, उक्तमार्गकरके सो भी, संयुक्त है, घोर दुरनुचरचारित्र आचरणकरके-इत्यादि ॥ और इस पाठकी वृत्तिमेंही महाव्रतका उच्चार कहा है; अन्यथा चतुर्विध संघ कैसे होवे? और त्रैलोक्यसारमें स्त्रीको मोक्ष कहा है.। तथा च तत्पाठः ॥ वीस नपुंसकवेआ इत्थीवेया य हुंति चालीसा ॥ पुंवेआ अडयाला सिद्धा इकमि समयंमि ॥१॥ भाषार्थः-नपुंसकवेद वीस (२०) स्त्रीवेद चालसि (४०), पुरुषवेद अतालीस (४८), ये सर्व, एकसौ आ3 (१०८) एक समयमें सिद्ध प्रश्नः-नग्न दिगंवरमुनिके चिन्हविना, किसीको भी केवल ज्ञान नहीं होता है. उत्तरः-ब्रह्मदेवकृत समयपाहुडकी वृत्तिमें लिखा है कि, भरतराजाने भावसे परिग्रह छोडा है. । तथा प्राकृतबंध हरिवंशपुराणमें लिखा है कि, शिरमें कर-हाथ डालतेही भरतनृपतिने केवलज्ञान लह्या. । और द्रव्यालंगराहत पांडवोंने, कर्मोका अंत किया. ॥ "जा चिहुरुप्पालण खिवइ हत्थु ता केवल उप्पण्णोपसत्थु॥”इतिहरिवंशपुराणे॥ प्रश्नः-आप प्रथम लिख आए हैं कि, वे सर्व लेख आगे चलके लिखेंगे तो, अब बतलाइए, वे लेख कौनसे हैं ? उत्तर:-वे लेख सर ए. कनिंगहाम (STRA. CUNNINGHA.M) के 'आर्चीओलोजिकल रीपोर्ट' ( A.RCHEOLOGICAL REPORT ) के तीसरे वोल्युममें (१३-१६५) छपाए हुए मथुराके प्रख्यात शिलालेख हैं; जिनकी नकल नीचें लिखते हैं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003207
Book TitleTattvanirnaya Prasada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAmarchand P Parmar
Publication Year1902
Total Pages878
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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