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त्रयस्त्रिंशःस्तम्भः। भी नहीं करनेसें आज्ञाका भंग होता है; इसवास्ते गंगाजलादि पूर्वोक्त द्रव्यविना और सामान्य जल, शालिके तंदुल आदि नहीं चढावने चाहिये.
उत्तरः-हे भ्रातः! शास्त्रोंमें तो सर्वही प्रकारकी वस्तु कही हैं, जो प्रथम लिखही आए हैं; इसवास्ते जिसको जैसी मिले, तैसी पवित्र सार वस्तुसे पूजादि करनी; और श्रद्धान सर्वहीका करना. क्योंकि, श्रीउमास्वामीने श्रद्धानवान्कोही उत्कृष्ट फल लिखा है. तदुक्तम्॥
जं सकइ तं कीरइ जं च ण समई तं च सदहई।
सद्दहमागो जीवो पावइ अजरामरं ठाणं ॥१॥ भावार्थ:-जो करशकीए तिसको करना, और जो न करशकीए तिसका श्रद्धान करना. क्योंकि, श्रद्धावान् जीव, अजरामरस्थानको प्राप्त करता है. । इसवास्ते शास्त्रोक्त आचरणही यथार्थ है, अन्य नही।
तेरापंथी दिगंबरी:-तुमने प्रथम जो जो लेख लिखे हैं, वे सर्व प्रतिष्ठादिनकेवास्ते हैं, अन्य दिनोंकेवास्ते नही.
उत्तरः-यह तुमारा कथन ठीक नहीं है. क्योंकि, पूर्वोक्त पाठ प्रतिष्ठादिनाश्रित नहीं है; किंतु, कोइ मुकुटसप्तमी, कोइ मुक्तावलीतपोद्यापन, कोइ नवपदमहिमा, कोइ नंदीश्वरपूजा इत्यादि आश्रित है. तथा षड्विधपूजाप्रकरणमें चार प्रकार पूजाका वर्णन करा है; तिसमें क्षेत्रपूजा, और कालपूजाका वर्णन करा है; तथाहि ॥ जिणजम्मण णिक्खवणं णाणुपत्ती य मोक्खसंपत्ती॥ णिसिहिसु खेत्तपूजा पुवुविहाणेण कायवा ॥१॥ गभ्पावयारजम्माहिसेयणिक्खवणणाणणिवाणं ॥ जम्हि दिणे संजाइयं जिणण्हवणं तद्दिणे कुज्जा ॥२॥ इरखुरससप्पिदहिखीरगंधजलपुण्णविविहकलसेहिं ॥ णिसिजागरं च संगीयणाडयाइहिं कायवं ॥३॥
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