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त्रयस्त्रिंशःस्तम्भः।
६०५ धूवेण सिसिरयरधवलकित्तिधवलीयजयत्तओपुरिसो॥ जायइ फलेहिं संपत्तपरमणिवाणसोक्खफलो ॥६॥ घंटाहिं घंटसहाऊलेसु पवरच्छराणमजम्मि ॥ संकीडइ सुरसंघायसहिओ वरविमाणेसु ॥७॥ छत्तेहि एस छत्तं भुंजइ पुहवीं च सत्तुपरिहीणो चामरदाणेण तहा विजिज्जइ चमरणिवदहि ॥८॥ अहिंसेयफलेण णरो अहिसिंचिजइ सुदंसणस्सुवरि ॥ खीरोयजलेणसुरिंदपमुहदेवेहि भत्तीए ॥ ९॥ विजयपडाणहिं णरो संगाममुहेसु विजइओ होइ ॥ छक्खंडविजयणाहो णिप्पडिवक्खो जसस्सी य॥१०॥ किं जंपिएण बहुणा तीसुवि लोयेसु किंपि जं॥
सोक्खं पूजाफलेण सवू पाविजइ णत्थि संदेहो॥११॥ भावार्थ:-जो नर, जिनेंद्रदेवके आगे जलधारा निक्षेप करे है, तिसका निश्चयकरी तिस जलधाराके प्रभावकरके पापमलका शोधन होवे हैं; और जिनेंद्रको चंदनलेपन करनेसे नर, सौभाग्यसंयुक्त होता है.। जो प्राणी, भक्तिसें जिनेंद्रके अक्षतके पुंजकरी अक्षतपूजा करता है, सो अक्षय निधिवाला होता है, रत्नोंका स्वामी होता है, अर्थात् षट्खंडवामीचक्रवर्ती होता है, क्षोभकरकेरहित होता है, अक्षीणलब्धियुक्त होता है, और यावत् अक्षय सुख मोक्षको प्राप्त होता है. । प्रभूकी पुष्पोंसें पूजा करनेसें कमलवदनी तरुणीजनके नेत्ररूप पुष्पोंकी वरमालाकरके आवृत देहका धारी होता है, और कामदेवसमान रूपवान् होता है.। प्रभुके आगे नैवेद्यप्रदान करनेसे पुरुष शक्तिमान होता है, कांतिमान होता है, तेजस्वी होता है, तथा लावण्यताके समुद्रकी वेला तरंगसमान शरीरको प्राप्त करता है. । दीपकपूजा करनेसें जैसे दीपक अंधकारको दूर करके वस्तुको प्रकाश करता है, तैसेंही तिस प्राणिको अज्ञानांधकार दूर होकर
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