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त्रयस्त्रिंशः स्तम्भः ।
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" || दीवंदइ दिइ जिणवरहं मोहहं होइ णट्ठाइ ॥ भावार्थ:- जो श्रीजिनेंद्रकी दीपकसें पूजा करता है, तिसका मोह अर्थात् अज्ञान नष्ट होता है. ॥
तथा जिन संहिताविषे ऐसा लिखा है. ॥ ॐ कैवल्यावबोधा द्योतयत्यखिलं जगत् ॥
यस्य तत्पादपीठाग्रे दीपान् प्रद्योतयाम्यहम् ॥ १ ॥ भावार्थ:- जिसका केवलज्ञानरूपी सूर्य संपूर्ण जगत्को प्रकाश करता है, तिस जिनेंद्रके पादपीठके आगे मैं दीपकों को प्रकाशता हूं. ॥ तथा भय्या भगवतीदासकृत ब्रह्मविलास में ऐसें लिखा है. ॥ दीपक अनाये चहुं गतिमैं न आवे कहुं । वर्त्तिके बनाये कर्मवर्त्ति न बनतु हैं ॥ आरती उतारतही आरत सब टर जाय । पाय ढिंग धेरै पापपकति हरतु हैं ।
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वीतराग देवजुकी कीजे दीपकसों चित्त लाय । दीपत प्रताप शिवगामी यो भनतु हैं ॥ १ ॥ तथा श्रीउमास्वामिविरचितश्रावकाचार में ऐसें लिखा है. ॥ मध्याह्ने कुसुमैः पूजा संध्यायां दीपधूपयुक् ॥ वामांगे धूपदाह दीपं कुर्याच्च सन्मुखम् ॥ १ ॥ अर्हतो दक्षिणे भागे. दीपस्य च निवेशनम् ॥
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भावार्थ:- मध्यान्हमें कुसुम ( फूलों) से पूजा करनी, संध्या में दीपधूपसंयुक्त पूजा करनी, भगवानके वामपासे धूपदाह करना, और सन्मुख दीपक करना, और अर्हन के दक्षिण पासे दीपकको स्थापन करना. ॥ तथा बणारसीदासजीने कहा है. ॥
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॥ दोहा ॥ पावक दहे सुगंधकूं, धूप कहावत सोय ॥ खेवत धूप जिनेशकुं, अष्टकर्म क्षय होय ॥ १ ॥
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