________________
त्रयस्त्रिंशःस्तम्भः।
___ ५९३ तथा आराधनाकथाकोषमें करकंडुके चरित्रमें ऐसें लिखा है.॥ .
तदा गोपालकः सोपि स्थित्वा श्रीमजिनाग्रतः॥ भो सर्वोत्कृष्ट ते पद्मं ग्रहाणेदमिति स्फुटम् ॥१॥ उक्त्वा जिनेंद्रपादाब्जोपरि क्षिप्त्वाशु पंकजम् ॥
गतो मुग्धजनानां च भवेत्सत्कर्मशर्मदम् ॥ २॥ भावार्थ:-तब सो गोपाल भी श्रीजिनमूर्तिके आगे स्थित होके, भो सर्वोत्कृष्ट ! यह कमल ग्रहण कर, ऐसा कहके श्रीजिनेंद्रके चरणकमलोपरि कमलको शीघ्र क्षेपन करके, गया; इत्यादि.
तथा श्रीजिनयज्ञकल्पप्रतिष्ठाशास्त्रमें ऐसें लिखा है.॥ “॥श्रीजिनेश्वरचरणस्पर्शादना पूजा जाता सा माला महाभिषेकावसाने बहुधनेन ग्राह्या भव्यश्रावकेनेति ॥” भावार्थः-श्रीजिनेश्वरके चरणस्पर्शसें अमूल्य पूजा हुई, सो महाभिषेक अंतमें भव्य श्रावकने बहुत धनकरके ग्रहण करनी.
तथा व्रतकथाकोषमें ऐसे लिखा है.॥ बत्प्रश्नाच्छृष्टिपुत्रीति प्राह भद्रे शृणु ब्रुवे ॥ व्रतं ते दुर्लभं येनेहामुत्र प्राप्यते सुखम् ॥१॥ शुक्लश्रावणमासस्य सप्तमीदिवसेहताम् ॥ स्नापनं पूजनं कृत्वा भत्त्याष्टविधमूर्जितम् ॥२॥ धीयते मुकुटं मूनि रचितं कुसुमोत्करैः ॥
कंठे श्रीवृषभेशस्य पुष्पमाला च धीयते ॥३॥ भावार्थः-तिसके प्रश्नसे आर्यिकाजी कहती भई, हे भद्रे श्रेष्ठिपुत्रि ! सुण, मैं तुजको व्रत कहती हूं; जिस व्रतके प्रभावसे इसलोकमें, और परलोकमें दुर्लभ सुख प्राप्त करिये हैं; सोही व्रत दिखावे हैं. शुक्लश्रावणमासकी सप्तमीके दिन अर्हन् भगवान्की मूर्तियोंको भक्तिसें स्नान करायके, अष्टद्रव्यकरके जिनेंद्रका पूजन करके, कुसुमोंके (पुष्पोंके ) समूहसें रचे
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org