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त्रयस्त्रिंशःस्तम्भः। तथा पूजासारनामा जिनसंहितामें ऐसें लिखा है. ॥ समृद्धिभत्तया परया विशुद्ध्या कर्पूरसंमिश्रितचंदनेन ॥ जिनस्य देवासुरपूजितस्य सुलेपनं चारु करोमि मुक्त्यै ॥१॥ भावार्थः-अपनी समृद्धिपूर्वक परमविशुद्ध भक्तिसें मिश्रितचंदनकरके देवअसुरादिकोंसें पूजित ऐसें जिनको मुक्तिकेवास्ते भला लेपन करता हूं. तथा त्रिवर्णाचारमें ऐसें लिखा है.॥
जिनांघ्रिचंदनैः स्वस्य शरीरे लेपमाचरेत् ॥ यज्ञोपवीतसूत्रं च कटिमेखलया युतम् ॥१॥ जिनांघ्रिस्पर्शितां मालां निर्मले कंठदेशके ॥
ललाटे तिलकं कार्य तेनैव चंदनेन च ॥२॥ ___ भावार्थः-जिनमूर्तिके चरणकमलके चंदनसे अपने शरीरको लेप करे,
और कटिमेखला ( कंदोरा-तरागडी) संयुक्त यज्ञोपवीत अपने शरीरऊपर धारण करे; । तथा जिनमूर्त्तिके चरणोंको स्पर्शी हुई मालाको अपने कंठमें धारण करे, तथा अपने लंलाटऊपर तिसही चंदनसें तिलक करे.॥ तथा पूजासारमें ऐसें लिखा है.॥
ब्रह्मनोथवा गोनो वा तस्करः सर्वपापकृत् ॥
जिनांध्रिगंधसंपर्कान्मुक्तो भवति तत्क्षणम् ॥ १॥ भावार्थ:-जो ब्रह्मघाती, तथा गोघाती, तथा तस्कर-चौर, तथा सर्व पापोंके करनेवाला पुरुष है, सो भी, जिनेंद्रके चरणोपरि लगे हुए गंधके स्पर्शसें, अर्थात् तिस गंधको भक्तिपूर्वक अपने शरीरको लगानेसें, तरक्षण शीघ्रही पूर्वोक्त पापोंसे मुक्त होता है-छूट जाता है.॥ तथा श्रीपालचरित्रमें ऐसें लिखा है. दिवसाष्टकपर्यंतं प्रपूजय निरंतरम् ॥ पूजाद्रव्यैर्जगत्सारैरष्टभेदैर्जलादिकैः ॥ १॥
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