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त्रयस्त्रिंशःस्तम्भः।
५८१ अथ कुछक दिगंबर श्वेतांबरके मतका स्वरूप, प्रश्नोत्तररूप करके लिखते हैं. क्योंकि, पूर्वोक्त कथन प्रायः चर्चाचंचूही समझ सकेंगे, और यह प्रश्नोत्तररूपकथन तो, थोडी समझवाले भी समझेंगे. ॥"प्रश्न-दिगंबर"॥ " उत्तर-श्वेतांबर"॥
प्रश्नः-भगवान् तो भुवनतिलकरूप है, इसवास्ते तिनको तिलक नहीं करना चाहिये.
उत्तरः-यह कहना अनभिज्ञोंका है. क्योंकि, जैसे भगवान् तीन लोकके छत्ररूप है, तो भी, तिनके मस्तकोपरि छत्र धारण करने में आवे हैं; तैसेंही तिलक भी जाणना. तथा तुमारे संस्कृत हरिवंशपुराणमें भी, भगवंतको तिलक करना लिखा है. तथाहि ॥
त्रैलोक्यतिलकस्यास्य ललाटे तिलकं महत् ॥
अचीकरन्मुदंद्राणी शुभाचारप्रसिद्धये ॥१॥ भावार्थ:-तीन लोकके तिलक इस भगवंतके ललाटमें खुशी होके इंद्राणी शुभाचारकी प्रसिद्धिवास्ते तिलक करती हुई.।१।
प्रश्न: लेपरहित, और रागद्वेषरहित, आरिहंतको विलेपन किसवास्ते करते हो? उत्तरः-हरिवंशपुराणमेंही लिखा है. यतः॥ जिनेंद्रांगमथेंद्राणी दिव्यामोदिविलेपनैः॥
अन्वलिप्यत भक्त्यासौ कर्मलेपविघातनम् ॥१॥ . भावार्थ:-जिनेंद्रके अंगको अथ इंद्राणी प्रधान आनंद देनेवाले विलेपनोंकरके भक्तिसें लेपन करती हुई. कैसा विलेपन ? कर्मलेपका घातक।१। __ और पाहुडवृत्तिमें पंचामृतस्नान करना भी लिखा है. और जिनवर तो, त्रिभुवनके छत्र है तो, तुम तिनके ऊपर छत्र क्यों करते हो ? जैसें भगवान् त्रिभुवनतिलक है, तैसेंही त्रिभुवनछत्र भी है; तब तिलक नही करना, और छत्र करना, यह कैसा अन्याय है!
प्रश्नः-भगवंतको तुम आभरण किसवास्ते चडाते हो?
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