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तत्त्वनिर्णयप्रासाद
दिगंबरः - निर्वाणकारण ज्ञानादि परम प्रकर्ष, स्त्रियोंमें नही है; परम प्रकर्ष होनेसें, सप्तम पृथ्वीगमनकारण पाप परमप्रकर्षवत्.
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श्वेतांवरः - यह कहना ठीक नही है. क्योंकि, “ परम प्रकर्ष होनेसें यह तुमारा हेतु व्यभिचारी है; स्त्रियोंमें मोहनीय स्थिति परम प्रकर्ष, और स्त्रीवेदादि परम प्रकर्षके बांधने के अशुभ अध्यवसाय के होनेसें.
दिगंबरः - स्त्रियोंको मोक्ष नही है, परिग्रहवत्र होनेसें, गृहस्थवत् . श्वेतांबरः - यह कहना भी अच्छा नही है; वस्त्रादि धर्मोपकरणोंको अपरिग्रहपणे अच्छीतरेंसें सिद्ध करनेसें ॥ इति स्त्रीनिर्वाणे संक्षेपेण बाधकोद्धारः ॥
और साधक प्रमाणोंका उपन्यास ऐसें है । कितनीक मनुष्यस्त्रिया निर्वाणवाली है, अविकलनिर्वाणके कारण होनेसें, पुरुषवत् निर्वाणका अविकल संपूर्ण कारण तो सम्यग्दर्शनादि रत्नत्रय है, वे तो स्त्रियांविषे हैही. और नपुंसकादिविपक्षसें अत्यंतव्यावृत्त होनेसें, यह हेतु, विरुद्ध अनेकांतिक भी नही है. तथा मनुष्यस्त्रीजाति, किसी व्यक्तिकरके मुक्तिके अविकल कारणवाली है, प्रव्रज्याकी अधिकारित्व होनेसें, पुरुषवत्. और यह असिद्धसाधन भी नही है. “गुब्विणी बालवच्छा य पवावेउं नकप्पइ गुर्विणी - गर्भवंती, और बालकवाली स्त्री, प्रव्रज्या देने को नही कल्पती है. इस सिद्धांतकरके तिनको अधिकारीपणा कथन करनेसें विशेष प्रतिषेध (निषेध) को शेष स्त्रियोंको अनुज्ञा होनेसें ॥ इति स्त्रीमुक्तिव्यवस्था ॥
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यह पूर्वोक्त कथन ( केवलिभुक्ति, और स्त्रीमुक्ति ) प्रमाणनय तत्त्वा लोकालंकारसूत्री रत्नाकरावतारिका नामा लघुवृत्ति दिग्दर्शनमात्र करा है; और अन्यग्रंथों में तो, बहुत विस्तारसें खंडन लिखा हुआ है, सो भी काम पडेगा तो लिखेंगे. इसवास्ते दिगंबरोंके सर्व तर्कशास्त्र, श्वेतांबरोंके तर्कशास्त्रोंने दले हुए हैं; यदि कोई विनादली तर्क दिगंबरोंपास है तो, प्रकट करें; तिसको भी श्वेतांबर दलेंगे.
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