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तत्त्वनिर्णयप्रासाद
वा अनुपस्थाप्यता, पारांचितकप्रायश्चित्तोंसें रहित होनेसें ? प्रथम पक्ष ठीक नही. जिसवास्ते यहां सप्तम पृथ्वीगमनाभाव, जिस जन्म में स्त्रियोंको मुक्तिगामीपणा है, तिसही जन्ममें कहते हो, वा सामान्यतः कहते हो ? प्रथम पक्षमें तो, चरमशरीरियोंके साथ अनेकांत है, अर्थात् यदि आद्य पक्ष मानो, तब तो पुरुषोंको भी, जिस जन्ममें मोक्ष मिलता है, तिसही जन्म में सप्तम पृथ्वीगमनयोग्यत्व होता नही है, इसवास्ते तिनको भी मुक्ति अभावका प्रसंग मानना पडेगा.
यदि दूसरा पक्ष कहते हो तो, तुमारा यह आशय होगा. सर्वोत्कृष्ट पदकी प्राप्ति, सो सर्वोत्कृष्ट अध्यवसायसें होवे. और सर्वोत्कृष्ट ऐसें दोही पद हैं. सर्वदुःखस्थानरूप सप्तमी नरकपृथ्वी, और सर्वसुखस्थान ऐसा मोक्ष तब तो जैसें स्त्रियोंको तिसके गमन योग्य मनोवीर्याभावके हुए, सप्तम पृथ्वीगमन आगममें निषिद्ध है, तैसें मोक्ष भी, तथाविध शुभमनोवीर्याभावके हुए, नही होना चाहिये. प्रयोग भी इसतरें है । मुक्तिका कारणरूप, ऐसा शुभमनोवीर्य परम प्रकर्ष, स्त्रियोंमें है नही, क्योंकि, सो प्रकर्ष है इसवास्ते, सप्तम पृथ्वीगमनकारणरूप, अशुभमनोवीर्य प्रकर्षकीतरें । इति पूर्वपक्षः ।
उत्तरपक्षः - यह सर्व अयुक्त है; क्योंकि, व्याप्तिही नही है. बहिर्व्यातिमात्र हेतुका गमकत्व नही हो सकता है, अंतर्व्याप्ति भी चाहिये; अन्यथा, तत् पुत्रत्वात् यह हेतु भी गमकत्व होगा. अंतर्व्याप्ति है सो प्रतिबंधबलसेही सिद्ध होती है; और यहां तो प्रतिबंध है नहीं, इसवास्ते यह हेतु संदिग्धविपक्षव्यावृत्तिवाला है, सो चरम शरीरीसें निश्चित व्यभिचारवाला है, क्योंकि, तिनको सप्तम पृथ्वीगमनहेतुरूप मनोवीर्यप्रकर्षके अभाव हुए भी, मुक्ति हेतुरूप मनोवीर्यप्रकर्षका सद्भाव है. तैसेंही मत्स्य, इस उदाहरणमें भी व्यभिचार आवेगा; तिनको सप्तम पृथ्वीगमनहेतु मनोवीर्यप्रकर्ष हुए भी, मोक्षहेतु शुभमनोवीर्य प्रकर्ष नही होता है. तथा जिनको अधोगमनशक्ति थोडी है, तिनकों उर्ध्वगमनप्रति भी थोडीही शक्ति है, ऐसा नियम नही है. क्योंकि, भुजपरिसर्पादि में व्यभिचार
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