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________________ ५३८ तत्त्वनिर्णयप्रासाद निग्रंथ एक अगत्य की कोम होनी चाहिये. इस अनुमानका हेतु यह है कि, बौद्धों पिटक के बीच वारंवार कथन करनेमें आया है कि, निग्रंथ बुद्धके, वा तिसके शिष्योंके विरुद्ध पक्षवाले हैं. अथवा तिनमेंसें कितनेaat बौद्धमत में लेनेमें आए. तथा निग्रंथ एक नवीन स्थापन करी हुई कोम है, ऐसा किसी जगे भी कहने में आया नही है; और अनुमान भी करने में नही आया है. तिससे हम तुम निश्चय कर सकते हैं कि, बुद्धके जन्म पहिलें बहुत वखत हुए निग्रंथ होने चाहिये. इस निर्णयको दूसरी एक बातका आधार मिलता है. बुद्ध और महावीरस्वामीके वखतमें हुए मंखलिगोशालेका कहना ऐसा है कि, मनुष्यजातिके छ (६) विभाग है. (देखो बौद्धोंका दीर्घनिकायका सामान्यफलसूत्र ) इस सूत्र के ऊपर बुद्धघोषने सुमंगलविलासिनी इस नामकी टीका रची है, तिसके अनुसारें मनुष्यजातिके छ विभागमेंसें तीसरे विभाग में निग्रंथों का समावेश करनेमें आया है. निर्ग्रथ, तिसही समयकी नवीन उत्पन्न हुई कोम होती तो, तिनको गोशाला मनुष्यजातिका एक पृथक् जुदा अर्थात् अगत्यका विभाग गिणे, ऐसा संभव नही होता है, पुत्र मेरे मत (मानने) मूजब जैसें प्राचीन बौद्ध, निर्ग्रथोंको, एक अग त्यकी, और पुरानी कोमतरीके जानते थे, तैसेंही गोशालेने भी निर्ग्रथों को बहुत अगत्यकी, और पुरानी कोमतरीके जानी हुई होनी चाहिये. इस मेरे मतकी तरफेणमें आखिर दलील यह है कि, बौद्धोंके मज्झिम (मध्यम) निकाय के ३५ मे प्रकरण में बुद्ध, और निर्ग्रथके सञ्चकके साथ हुई चर्चाकी बात लिख हुई है. सच्चक आप निग्रंथ नही है. क्योंकि, वो आप वाद में नातपुत्त ( ज्ञातपुत्र महावीर ) को हरानेका अभिमान जनाता है. और जिन तत्त्वोंका आप बचाव करता है, वे तत्त्व जैनोंके नहीं हैं. जब एक नामांकितवादी, जिसका पिता निग्रंथ था, सो बुद्ध के वखतमें हुआ, तब निर्मथोंकी कोम बुद्धकी जिंदगीकी अंदर स्थापनेमें आई होवे, यह बन सकता नहीं है. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003207
Book TitleTattvanirnaya Prasada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAmarchand P Parmar
Publication Year1902
Total Pages878
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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