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द्वात्रिंशस्तम्भः। उपद्रवादि नाश हो जाते हैं; इसवास्ते तार्य अरिष्टनेमि भगवान् हमको कल्याण-शांति करो. । इति ।
दूसरा अर्थ रिष्टनाम पाप उपद्रवका है, तिसके काटनेवास्ते नेमि च. की धारासामान, सो कहिये रिष्टनेमि; अकार, रिष्टशब्द अमंगलवाचक होनेसें लगाया है.। यथा अपच्छिमा मारणंतिसंलेहणा । तथा तित्थयराणं अपच्छिमो इत्यादिवत् । शेषार्थ पूर्ववत् जानना ॥ येह दोनों अर्थ सम्यक् प्रकारसें घट सकते हैं. इसतरेकी अनेक श्रुतियां सामवेदादि संहिताओंमें हैं, तहां भी, इसी रीतिसें अर्थोकी घटना करलेनी।
पूर्वपक्षः-अन्य सर्व तिर्थंकरोंको छोडके, 'श्रीनेमि' और 'अरिष्टनेमि' इन दोनों नामोंसें बावीसमे अर्हन् अरिष्टनेमिकी स्तुति वेदमें करनेका क्या प्रयोजन है ?
उत्तरपक्षः-जिस समयमें वेदोंकी संहिता बांधी गइ थी, शुक्ल यजुर्वेद और यजुर्वेदके ब्राह्मण, आरण्यक, रचे गये थे, तिस समयमें श्री अरिष्टनेमि २२ मे अरिहंत विद्यमान थे. और श्रीकृष्ण वासुदेवके ताए समुद्रविजयके पुत्र थे. तिनोंने संसार त्यागके दीक्षा लेके, केवलज्ञान उत्पन्न करके, धर्मतीर्थ प्रवर्तन करा. और श्रीकृष्ण वासुदेवजीने जिनकी भक्ति
और मुनियोंको वंदना करनेसें तीर्थंकर गोत्र उपार्जन करा, जिसके प्रभावसें आगामि उत्सर्पिणीकालमें अमम नामा अरिहंत होके निर्वाणपदको प्राप्त होवेंगे. ऐसे अरिष्टनेमि भगवान्की तिन वेदोंमें स्तुति करनी असं. भव नही है.
तथा तैत्तिरीय आरण्यक प्र० ४, अ० ५, मंत्र १७ मेमें प्रकटकरके अरिहंतकी स्तुति करी है. यथा ॥ अर्हन् बिभर्षि सायकानिधन्व अर्हन्निष्कं यजतं विश्वरूपं । अर्हन्निदं दयसे विश्वमब्भुवं न वा ओजीयो रुद्र त्वदस्ति ॥
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