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द्वात्रिंशस्तम्भः। उत्तरपक्षः-हमारे अभिप्रायमुजब तो, इस श्रुतिका अर्थ, श्रीनेमि (२२) बावीसमे तीर्थंकरकी स्तुतिकरके तिनको आहुति दीनी है. यथा(नु) विस्मयार्थमें है (वाजस्य ) भावयज्ञस्य-भाक्यज्ञका * (प्रसवः) उत्पत्तिकारक, जिनकी प्ररूपणासें भावयज्ञ उत्पन्न हुआ है. क्योंकि, जो भावयज्ञ है, सोही पारमार्थिक यज्ञ है. भावयज्ञका स्वरूप ऐसा है.। “॥ अग्निहोत्रमग्निकारिका सा चेह । कर्मेधनं समाश्रित्य दृढासद्भा
वनाहुतिः । कर्मध्यानाग्निना कार्या दीक्षितेनाग्निकारिका ॥१॥" ' भावार्थः-कर्मरूप इंधनको आश्रित्य अर्थात् कर्मरूप इंधनकरके दृढनिश्चलसत अच्छीभावनारूप आह्वति, धर्मध्यानरूप आग्निकरके करणी. ऐसी अग्निकारिका, दीक्षित ब्राह्मणने करणी. । इत्यादि भावयज्ञका कथन, आरण्यकमें है. तथा ॥
इंद्रियाणी पशून् कृत्वा वेदी कृत्वा तपोमयीम् ॥ अहिंसामाहुतिं कृत्वा आत्मयज्ञं यजाम्यहम् ॥१॥ ध्यानाग्निकुंडजीवस्थे दममारुतदीपिते ॥ असत्कर्मसमित्क्षेपे अग्निहोत्रं कुरुत्तमम् ॥२॥ यूपं कृत्वा पशून् हत्वा कृत्वा रुधिरकर्दमम् ॥
यद्येवं गम्यते स्वर्गे नरके केन गम्यते ॥३॥ भावार्थः-इंद्रियोंको पशूकरके, तपोमयी वेदीकरके, अहिंसाको आहुतिकरके, आत्मयज्ञको, मैं करता हूं. वास्तविक यज्ञ तो यही है; बाकी, अनाथ पशुकों मारके यज्ञ करना, यह मोक्षार्थी पुरुषोंका काम नही है. महाभारतके शांतिपर्वके २६६ अध्यायमें भी, हिंसक
___ * श्रीमत्हेमचंद्रसूरिने नानार्थद्वितीयकांडमें वाजनाम यज्ञका लिखा है। तथा पंडित भानुदत्तविशारदने शब्दार्थभानुके २८४ पृष्टोपरि वाजशब्दका अर्थ यज्ञ लिखा है । तथा तारानाथतर्कवाचस्पतिभट्टाचार्यविरचितशब्दस्तोममहानिधिमें भी १०११ पत्रोपरि लिखा है ॥
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