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तत्वनिर्णयप्रासादइस लेखसें भी यही सिद्ध होता है कि, जैनमत वेदसंहितासें भी पूर्व विद्यमान था. क्योंकि 'नग्नक्षपणक' इस शब्दका यह अर्थ है-क्षपणक नाम साधुका है, साथमें 'नग्न' इस विशेषणसें जैनमतका साधु सिद्ध होता है. जैनमतमें दो प्रकारके साधु होते हैं, स्थविरकल्पी, और जिनकल्पी. जिनकल्पी आठ प्रकारके होते हैं. जिनमें केइ जिनकल्पी, ऐसें होते हैं, जे, रजोहरण, मुखवस्त्रिकाके विना, अन्यकोइ वस्त्र नहीं रखते हैं, और प्रायः जंगलमेंही रहते हैं. तथा टीकाकार नीलकंठजीने भी, क्षपणकपदका अर्थ, पाषंड भिक्षु करा है.
पूर्वपक्षः-आपने जो नग्न क्षपणक पदका अर्थ, जिनकल्पी साधु, ऐसा करके जैनमतकी सिद्धि वेदव्यासजीसें, और वेदसंहितासे पहिले करी, सो ठीक नही है. क्योंकि, वास्तविकमें वह साधु नही था, किंतु पातालभुवननिवासी नागदेवता था. और यही वर्णन, आगले पाठमें लिखा है.
उत्तरपक्षः-आपका कहना सत्य है, परंतु उस नागदेवताने जो नग्न क्षपणकका रूप धारण किया, सो तिस रूपधारी साधुयोंके विद्यमान हुए विना, कैसे धारण किया ? और नग्न क्षपणक यह शब्द भी कैसे प्रवृत्त हुआ ? तो सिद्ध हुआ कि, जैनमत वेदव्यासजीके समयमें तो विद्यमान थाही, परंतु वेदव्यासजीके, और वेदसंहितासे पहिले भी, विद्यमान था, उत्तंकके देखनेसें.
तथा महाभारतके शांतिपर्वके २१८ अध्यायमें बौद्धमतका खंडन लिखा है, और जैनमत, बौद्धमतसें प्राचीन है, यह आगे सिद्ध करेंगे. तो इससे भी जैनमत वेदसंहिता, और वेदव्यासजीसे पहिलेका सिद्ध होता है. तथा मत्स्यपुराणके २४ अध्यायमें ऐसा पाठ है.
गत्वाथ मोहयामास रजिपुत्रान् बृहस्पतिः । जिनधर्म समास्थाय वेदबाह्यं स वेदवित् ॥
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