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________________ द्वात्रिंशस्तम्भः। - उत्तरपक्षः-यह कथन तुह्मारा मिथ्या है. क्योंकि, इस कथनके सच्चे करनेवाला तुह्मारे पास कोई भी प्रमाण नहीं है. पूर्वपक्षः-नैकस्मिन्नसंभवात् ' इस सूत्रके अर्थमें जो शंकरखामीने सप्तभंगीका खंडन लिखा है, सो अर्थ, इस सूत्रका नही, किंतु अन्य है. उत्तरपक्षः-वाहजीवाह !! इस कथनसें तो तुमने शंकरस्वामीको अज्ञानी सिद्ध करे कि, जिनोंने अन्यार्थके स्थानमें अन्यार्थ समझा, और लिख दिया. इससे अधिक अन्य अज्ञान क्या होता है ? और ऋग्वेदादि चारों वेदोंऊपरी भाष्यकर्ता, सायणमाधवाचार्य, अपने रचे शंकरदिगविजयमें लिखते हैं कि, शंकरस्वामी, मतोंका खंडन करके, और व्याससूत्रोपरि शारीरक भाष्य रचके, बद्रीनाथ केदारनाथ हिमालयके शृंगोपरि गए. तहां व्यासजी आप आए, और शंकरस्वामीको सम्मति दीनी कि, जो तुमने मेरे रचे सूत्रोपरि भाष्य रचा है, सो मेरे अभिप्रायकेसमान है. तथा यह भी व्यासजीने कहा कि, मेरे इन सूत्रोंऊपर कइ जनोंने भाष्य पीछे रचे, और आगेको कइ जन रचेंगे, परंतु तुमारे भाष्यसदृश कोइ भी नहीं. क्योंकि, तुम सर्वज्ञ हो. इत्यादि-इस लेखसे भी, सप्तभंगीका खंडन, व्यासजीनेही करा सिद्ध होता है, इसवास्ते वेदसंहितासे पहिलेही, जैनमत विद्यमान था.. तथा महाभारतके आदिपर्वके तीसरे अध्यायमें यह पाठ है. ॥ “साधयामस्तावदित्युत्त्काप्रातिष्ठतोत्तंकस्तेकुंडले गृहीत्वासोपश्यदथ पथिननंक्षपणकमागच्छंतंमुहुर्मुहुर्दृश्यमानमदृश्यमानंच॥१२६॥" भावार्थ:-इसका यह है कि, उत्तंकनामा विद्यार्थी, उपाध्यायकी स्त्रीकेवास्ते कुंडल लेनेको गया; रस्तेमें पौष्यके साथ वार्तालाप हुआ, अन्ननिमित्त उत्तंकने पौष्यको अंधा होनेका शाप दिया, पौष्यने बदलेका शाप दिया कि, तूं अनपत्य (संतानरहित) होवेगा-अंतमें, हम शापाभावका निश्चय करते हैं. ऐसा कहके, कुंडलोंको लेके, उत्तंक चलता भया. तिस अवसरमें मार्गमें, उत्तंक, वारंवार दृश्यमान अदृश्मान, ऐसे, नग्न क्षपणकको आता हुआ, देखता भया. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003207
Book TitleTattvanirnaya Prasada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAmarchand P Parmar
Publication Year1902
Total Pages878
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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