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________________ एकत्रिंशस्तम्भः। ४९३ यथा ॥ यस्याः सान्निध्यतो भव्या वांछितार्थप्रसाधकाः ॥ श्रीमदाराधना देवी विघ्नव्रातापहास्तु वः॥१॥ शेषं पूर्ववत् ॥ तदपीछे तिसही पूर्वोक्तविधिसे सम्यक्त्वदंडकका उच्चारण, द्वादशवतोंका उच्चारण करावणा. । वासक्षेपकायोत्सर्गादि भी, “संलेखना आराधना' के आलापककरके तैसेंही जाणना.। प्रदक्षिणा करनी, ग्लानकी शक्तिके अनुसार होवे भी, और नही भी होवे. । दंडकादिमें 'जावनियमपज्जुवासामि' के स्थानमें 'जावजीवाए' ऐसें कहना. । तदपीछे सर्व जीवोंकेसाथ अपराधकी क्षामणा करनी। पीछे श्रावक परमेष्ठिमंत्रोच्चारपूर्वक गुरुके सन्मुख हाथ जोडके कहें। खामेमि सजीवे सवे जीवा खमंतु मे ॥ मित्ती मे सवभूएसु वेरं मज्झ न केणइ ॥१॥ - गुरु कहें। " ॥ खामेह जो खमइ तस्स अथ्थी आराहणा जो न खमइ तस्स नथ्थि आराहणां ॥” तदपीछे श्रावक क्षमाश्रमणपूर्वक कहें “ । भयवं अणुजाणह।” गुरु कहें “ । अणुजाणामि ।” श्रावक परमेष्ठिमंत्रपाठपूर्वक कहें। “॥ जे मए अणंतेणं भवप्भमणेणं पुढविकाइआ आउकाइआ तेउकाइआ वाउकाइआ वणस्सइकाइआ एगिदिआ सुहमा वा बायरा वा पज्जत्ता वा अपज्जत्ता वा कोहेणं वा माणेण वा मायाए वा लोहेण पंचिंदिअट्टेण वा रागण वा दोसेण वा धाइआ वा पीडिआ वा मणेणं वायाए कारणं तस्स मिच्छामि दुक्कडं ॥” फिर परमेष्ठिमंत्र पढके। “॥ जे मए अणंतेणं भवप्भमणेणं बेइंदिआ वा सुहमा वा बायरा वा० शेषं पूर्ववत् ॥” Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003207
Book TitleTattvanirnaya Prasada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAmarchand P Parmar
Publication Year1902
Total Pages878
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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