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________________ त्रिंशस्तम्भः । ऐसें पढके दशों दिशायोंमें गंध, जल, अक्षतादि क्षेप करना. तदपीछे | शिवमस्तु सर्वजगतः परहितनिरता भवंतु भूतगणाः ॥ दोषा प्रयांतु नाशं सर्वत्र सुखीत्रवंतु लोकाः ॥ १ ॥ सर्वेपि संतु सुखिनः सर्वे संतु निरामयाः ॥ सर्वे भद्राणि पश्यंतु मा कश्चिद्दुःखभाग्भवेत् ॥ २ ॥ यह आर्या और अनुष्टुप् छंद पढने. । तदपीछे | “ ॥ ॐ भूतधात्री पवित्रास्तु अधिवासितास्तु सुप्रोषितास्तु ॥ " ऐसें पढके प्रथम लीपी हुई भूमिमें जलसें प्रोक्षण ( सेचन) करे. । तदपीछे | 95 " || ॐ स्थिराय शाश्वताय निश्चलाय पीठाय नमः ॥ ऐसें पढके धोके चंदनसें लेपन करके स्वस्तिक करके अंकित ( चिहित ) ऐसा पूजापट्टस्थालादि स्थापन करे, और चैत्यमें तो स्थिरबिंब होने से इन दोनों मंत्रोंकरी तिसके भूमिजलपट्टादिकोंको अधिवासन करने. । तदपीछे | ४७६ 66 ॥ ॐ अत्र क्षेत्रे अत्र काले नामार्हतो रूपाहतो द्र व्यार्हतो भावार्हतः समागताः सुस्थिताः सुनिष्ठिताः सुप्र तिष्ठिताः संतु ॥” ऐसें पढके अर्हत् प्रतिमाको स्थापन करे निश्चलबिंबके हुए, चरण अधिवासन करे. ॥ तदपीछे अंजलिके अग्रभाग में पुष्प लेके “॥ ॐ नमोर्हद्भयः सिद्धेभ्यस्तीर्णेभ्यस्तारकेभ्यो बुद्धेभ्यो बोधकेभ्यः सर्वजंतुहितेभ्यः इह कल्पनबिंबे भगवंतोर्हतः सुप्रतिष्ठिताः संतु ॥" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003207
Book TitleTattvanirnaya Prasada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAmarchand P Parmar
Publication Year1902
Total Pages878
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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