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त्रिंशस्तम्भः। सिद्धांतके पढनेवालोंने श्रुतसामायिककरके माना है. और निशीथ महानिशीथके तिरस्कार करनेवालोंने नही अंगीकार करा है. तिनोंने तो प्रतिमोद्वहनविधिकोही श्रुतसामायिककरके कथन करा है. ॥ माला भी कितनेक कौशेयपट्टसुत्रमयी (रेशमी) स्वर्ण, पुष्प,मोति, माणिक्य गार्भित, आरोपते हैं. और कितनेक श्वेत पुष्पमयी आरोपते हैं. तिसमें तो, अपनी संपत्तिही प्रमाण है. ॥ इतिव्रतारोपसंस्कारे श्रुतसामायिकारोपणविधिः॥
इत्याचार्यश्रीमद्विजयानंदसूििवरचिते तत्त्वनिर्णयप्रासादे पंचदशवतारोपसंस्कारांतर्गतश्रुतसामायिकारोपणवि
धिवर्णनोनामैकोनत्रिंशःस्तंभः ॥ २९ ॥
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॥ अथत्रिंशस्तम्भारम्भः॥ अथ त्रिंशस्तंभमें व्रतसंस्कारांतर्गत प्रसंगसे कथन करी श्रावकोंकी दिनचर्या कहते हैं. दो मुहुर्त शेष रात्रि रहे श्रावक सूता ऊठे, मलमूत्रकी शंका दूर करे, और श्रुचि होकर पवित्र आसनऊपर स्थित हुआ यथाविधिसे परमेष्ठि महामंत्रका जाप करे. पीछे कुलका, धर्मका, व्रतका, श्रद्धाका, विचार करके, और स्तोत्रपाठसंयुक्त चैत्यवंदन करके, अपने घरमें, वा धर्मघर (पौषधशालादि) में स्थित होकर, आवश्यक (प्रतिक्रमणादि) करे.। तदपीछे प्रत्युष कालमें अपने घरमें स्नान करके, शुचि होके, शुचि वस्त्र पहिरके, भोग संसारिक सुख, और मोक्ष देनेवाले, ऐसें अरिहंतकी पूजा करे.। तिसवास्ते जिनार्चनविधि, अर्हत्कल्पके कथनानुसारें कहते हैं. सोयथा ॥ श्राद्ध केवल दृढसम्यत्त्व, प्राप्तगुरुउपदेश, निजघरमें, वा चैत्यमें अर्थात् बडे मंदिरमें, धम्मिल (शिखा) बांधी, शुचि वस्त्र पहरि, उत्तरासंग करी, स्ववर्णानुसारकरके. जिनोपवीत, उत्त. रीय, उत्तरासंगधारी, मुखकोश बांधी, एकाग्रचित्त, एकांतमें जिनार्चन, जिनपूजन, करे. । प्रथम जल, पत्र, पुष्प, अक्षत, फल, धूप, अग्नि, दीपक, गंधादिकोंको निःपापता करे.॥
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