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अष्टाविंशस्तम्भः ।
१५५ नवरं क्षत्रियकेवास्ते प्राणातिपात स्थानमें प्रथम व्रतमें ४७ । ४८ । यह दो गाथा, अधिक जाननी.। युद्धमें, कोइ गौयांको चुरा ले जाता होवे तिसके हटानेमें, चैत्य, गुरु, साधु, संघको उपसर्ग हुए. उपसर्ग देनेवालेको हटानेमें तथा दुष्टके निग्रहमें, जीवके बध हुए मुझको दोष नही । ४९। जनोंके, और देशके रक्षणवास्ते सिंह, वाघ, शत्रुयोंके हननेमें मुझको दोष नहीं; अर्थात् इन कामोंके करनेसें मेरा व्रत भंग न होवे । जल पीनेमें छाणना, अन्यत्र स्नानादिमें यथाशक्ति.। ४८ । इनमें प्रमादके होनेसें, गुरुके वचनसे यह तप करूं; अल्प बहुत भांगेसें, तिससे मेरी विशुद्धि होवे. । ४९ ॥ इति परिग्रहप्रमाणटिप्पनकविधिः॥ ___ इन बारांही व्रतोंमेंसें कोइ कितनेही व्रत अंगीकार करे, तिसको तितनेही उच्चार करावने। जिसको छ मासिक सामायिक व्रत आरोपीये हैं, तिसका यह विधि है. ॥ चैत्यवंदना, नंदि, क्षमाश्रमणादि सर्व, पूर्ववत् सामायिकके अभिलाप करके; । और विशेष यह है; । कायोत्सर्गके अनंतर तिसके हस्तगत नूतन मुखवस्त्रिकाके ऊपर वासक्षेप करना.। तिसही मुखवस्त्रिकाकरके षट् (६) मासपर्यंत उभयकाल सामायिक ग्रहण करे । पीछे तीनवार नमस्कारका पाठ करके दंडक पढावे.
सयथा ॥ "करोमि भंते सामाइयं सावज्जं जोग पच्चक्खामि जावनियमं पज्जुवासामि दुविहं तिविहेणं मणेणं वायाए काएणं न करेमि न कारवमि तस्स भंते पडिकमामि निंदामि गरिहामि अप्पाणं वोसिरामि । से सामाइए चउविहे तंजहा दवओ खित्तओ कालओ भावओ दवुओणं सामाइअं पडुच्च खित्तओणं इहेव वा अन्नत्थ वा कालओणं जाव च्छम्मासं भावओणं जाव गहेणं न गहिज्जामि जाव छलेणं न छलिज्जामि जाव सन्नि वाएणं नाभिभविज्जामि ताव मे एसासामाइयपडिवत्ती ॥"
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