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सप्तविंशस्तम्भः ।
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कुदेवकुगुरुकुधर्मनिंदामाह ॥ सरागोपि० यदि जगत् में सरागः रागद्वेषादिकरी सहित भी देव होवे, अब्रह्मचारी मैथुनाभिलाषी भी गुरु होवे, और दयाहीन भी धर्म होवे, तो, हाहा ! इति खेदे बड़ा भारी कष्ट है, संसारलक्षण जगत् नष्ट हुआ, दुर्गतिमें पडनेसें क्योंकि, पूर्वोक्त देव गुरु धर्मकरके डूबनाही होवे . ।
यत उक्तम् ॥
रागी देवो दोसी देवो नामिसूमंपि देवो रत्ता मत्ता कंता सत्ता जे गुरु तेवि पुज्जा । मज्जे धम्मो मंसे धम्मो जीव हिंसाइ धम्मो हाहा कठ्ठे नट्ठो लोओ अट्टमहं कुणंतो ॥ १ ॥ १३ ॥
ऐसें पूर्वोक्त अदेव, अगुरु, अधर्मका परित्याग करके, सत्य देव, गुरु, धर्मकी, आस्था करनी, तिसका नाम सम्यक्त्व है. अर्थात् आत्माका जो शुभ परिणाम है, सोही सम्यक्त्व है. सो सम्यक्त्व हृदयमें है, ऐसा पांच लक्षणोंकरके मालुम होता है, वे पांच लक्षण कहते हैं. ॥
शमसं० - जिस जीवमें अनंतानुबंधि क्रोध मान माया लोभका उपशम देखिये, अर्थात् अपराध करनेवाले के ऊपर जिसको तीन कषाय उत्पन्न हो ही नही, यदि उत्पन्न होवे तो, तिस क्रोधादिको निष्फल कर देवे, इस शमरूप लक्षणसें जाणिये कि, इस जीव में सम्यक्त्व है । १ । संवेग - जिसके हृदयमें संवेग संसारसें वैराग्यपणा होवे, तिस जीवमें संवेगरूप लक्ष
सें सम्यक्त्व जाणिये हैं. । २ । संसारके सुखों ऊपर द्वेषी, वैराग्यवान्, परवशपणेसें कुटुंबादिकके दुःखसें गृहस्थपणेमें रहा हुआ मोक्षाभिलाषी, जो जीव है, तिसमें निर्वेदरूप लक्षणसें सम्यक्त्व है. । ३ । जिसके हृदय में दुःखिजीवोंको देखके अनुकंपा (दया) उत्पन्न होने, दुःखिजीवोंके दुःखोंको दूर करनेका जिसका मन होवे, जो दुःखिजीवको देखके अपने मनमें दुःखी होवे, शक्तिअनुसार दुःखिजवके दुःखोंको दूर करे, तिसमें अनुकं पारूप लक्षणसें सम्यक्त्व उपलब्ध होता है. । ४ । जिनोक्त तत्त्वोंमें अस्ति
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