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सप्तविंशस्तम्भः। अथगुरुलक्षणमाह ॥ अथ गुरुके लक्षण कहते हैं ॥ महाव्र. अहिंसादि पांच महाव्रतके धारने पालनेवाले होवे, और आपदा आ पडे तब धीर साहसिक होवे, अपने व्रतोंको विराधे नही, कलंकित करे नही । बेंतालीश (४२) दूषणरहित भिक्षावृत्ति माधुकरी वृत्ति करी अपने चारित्रधर्मके तथा शरीरके निर्वाहवास्ते भोजन करे, भोजन भी ऊनोदरतासंयुक्त करे, भोजनकेवास्ते अन्न पाणी रात्रिको न राखे, धर्मसाधनके उपकरणविना और कुछ भी संग्रह न करे, तथा धन, धान्य, सुवर्ण, रूपा, मणि, मोती, प्रवालादि परिग्रह, न राखे. । सामा० रागद्वेषके परिणामरहित मध्यस्थ वृत्ति होकर सदा सामायिकमें वर्ते.। धर्मोप० जो धर्म जीवोंके उद्धारवास्ते सम्यग् ज्ञानदर्शनचारित्ररूप परमेश्वर अरिहंत भगवंतने स्याद्वाद अनेकांतस्वरूप निरूपण किया है, तिस धर्मका जे भव्य जीवोंकेतांइ उपदेश करे, परंतु ज्योतिषशास्त्र, अष्टप्रकारका निमित्त शास्त्र, वैद्यशास्त्र, धन उत्पन्न करनेका शास्त्र, राजसेवादि अनेकशास्त्र, जिनसें धर्मको बाधा पहुंचे तिनका उपदेश न करे; ऐसे गुरु कहिये । काष्ठमय बेडीसमान आप भी तरें, और औरोंको भी तारें. ॥७॥
अथागुरुलक्षणमाह ॥ अथ अगुरुके लक्षण कहते हैं ॥ सर्वा० स्त्री, धन, धान्य, हिरण्य, रूपादि सर्व धातु, क्षेत्र, हाट, हवेली, चतुःपदादिक अनेक प्रकारके पशु, इन सर्वकी अभिलाषा है जिनको, वे सर्वाभिलाषिणः। सर्वभोजिनः । मधु, मांस, मांखण, मदिरा, अनंतकाय, अभक्ष्यादिक सर्व वस्तुके भोजन करनेवाले होवे, किसी भी वस्तुको वर्जे नही, । सपरिग्रहाः । जे पुत्र, कलत्र, धन, धान्य, सुवर्ण, रूपा, क्षेत्रादिककरीसहित हैं,। अब्रह्म तथा अब्रह्मचारी हैं । मिथ्यो० मिथ्या वितथ झूठे धर्मका उपदेश करें, झूठाधर्म प्रकाशें, ज्योतिष, निमित्त, वैदक, मंत्र तंत्रादिकका उपदेश देवें, वे गुरु नही. लोहमय बेडी (नावा) समान, आप भी डूबे, और औरोंको भी डो.. ॥८॥
पूर्वोक्त वातही कहते हैं ॥ परिग्रहा० स्त्री, घर, लक्ष्मी आदि परि. प्रह, और क्षेत्र, कृषी, व्यवसायादि आरंभ इनमें जे मग्न है, आपही
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