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________________ चतुर्विंशस्तम्भः। ३७७ पूज्येयं हृद्येयं अभिवाद्येयं तद्दत्तेयं त्वया धेनुः कृतपुण्यो भव प्राप्तपुण्यो भव अक्षयं दानमस्तु अर्ह ॐ॥” यह कहकर गृह्यगुरु, धेनुको ग्रहण करे. शिष्य तिस गौकेसाथ द्रोणप्रमाण सात धान्य, तुलामात्र षट् (६) रस और पुरुषतृप्तिमात्र षट् (६) विकृती (विगय) देवे ॥ इतिगोदानम् ॥ अन्य सर्व भूमिरत्नादिदानोंविषे यह मंत्र पढना.। यथा ॥ “॥ ॐ अर्ह एकमस्ति दशकमस्ति शतमस्ति सहस्रमस्ति अयुतमस्ति लक्षमस्ति प्रयुतमस्ति कोट्यस्ति कोटिदशकमस्ति कोटिशतकमस्ति कोटिसहस्रमस्ति कोट्ययुतमस्ति कोटिलक्षमस्ति कोटिप्रयुतमस्ति कोटाकोटिरस्ति संख्येयमस्ति असंख्येयमस्ति अनंतमस्ति अनंतानंतमस्ति दानफलमस्ति तदक्षयं दानमस्तु ते अर्ह ॐ ॥” इति परेषां दानानां मंत्रपाठः॥ यहां उपनयनमें गोदानकाही निश्चय है, शेष दान क्रमकरके अन्यदा भी देना. गोदानादि दान गृह्यगुरु ब्राह्मणोंकोही देना. निःस्पृह यतियोंको न देना. तथा तिन यतियोंको, अन्न, पान, वस्त्र, पात्र, भेषज, वसति, पुस्तकादि दानमें 'धर्मलाभः' यही मंत्र जाणना.। अथ गृह्यगुरु, उपनीतसे गोदान लेके, पर्णानुज्ञा देके, चैत्यवंदन, और साधुवंदन करायके, तैसेंही संघके मिले हुए, मंगलगीतवाजंत्रोंके वाजते हुए, शिष्यको साधुयोंकी वसतिमें (उपाश्रयमें) ले जावे. तहां मंडलीपूजा, वासक्षेप, साधुवंदनादि सर्व पूर्ववत् करना.। तदपीछे चतुर्विध संघकी पूजा, और मुनियोंको वस्त्र, अन्न, पात्रादि दान करे. ॥ इति गोदानविधिः ॥ संपूर्णोयं चतुर्विधउपनयनविधि ः॥ . __ अथ शूद्रस्योत्तरीयकन्यासविधिः-अथ शूद्रको उत्तरीयकन्यासविधि लिखते हैं.॥सात दिन तैलनिषेकस्नान पूर्ववत् जाणनां । तदनंतर यथाविधि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003207
Book TitleTattvanirnaya Prasada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAmarchand P Parmar
Publication Year1902
Total Pages878
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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