________________
तत्त्वनिर्णयप्रासादपणा, वा क्षत्रियपणा, वा वैश्यपणा प्राप्त करा है, अंगीकार करा है; तिसवास्ते हे वत्स ! तूं गृहस्थधर्ममें मोक्षके सोपानरूप दान देनेका प्रारंभ कर. । तब नमस्कार करके शिष्य कहे, हे भगवन् ! मुझको दानका विधी कहो. । गुरु कहे 'आदिशामि' कहता हूं। यथा ॥
गावो भूमिः सुवर्ण च रत्नान्यन्नं च नक्तकाः ॥ गजाश्याइति दानं तदष्टधा परिकीर्तयेत् ॥ १॥ एतच्चाष्टविधं दानं विप्राणां गृहमेधिनाम् ॥ देयं न चापि यतो गृह्णन्त्येतच्च निःस्पृहाः ॥२॥ यतिभ्यो भोजनं वस्त्रं पात्रमौषधपुस्तके ।
दातव्यं द्रव्यदानेन तौ द्वौ नरकगामिनौ ॥३॥ अर्थः-गौ १, भूमि २, सुवर्ण ३, रत्न ४, अन्न ५, नक्तक* ६, हाथी ७, और घोडा ८, येह आठ प्रकारका. दान कहिये । येह पूर्वोक्त आठ प्रकारका दान, गृहस्थी ब्राह्मणगुरुयोंको देना. और निःस्पह यति साधु मुनिराज, इस दानको नहीं लेते हैं । यतियोंको तो, भोजन, वस्त्र, पात्र, औषध, पुस्तक, इनका दान देना. यतिको द्रव्य (धन) का दान देनेसें, देनेलेनेवाले दोनोंही नरकगामी होते हैं. ॥३॥ तिसवास्ते प्रथम गोदान ग्रहण करना. उपनीत, बछडेसहित कपिला, वा पाटला, वा श्वेतरंगकी, नापित, चर्चित, भूषित, धेनुको, आगे ल्यायके, पूंछसे पकडके, रूप्यमय खुरा है जिसके, स्वर्णमय शृंग है जिसके, ताम्रमय पृष्ठ है जिसकी, कांस्यमय दोहपात्र है जिसका, ऐसी धेनु, गृह्यगुरुकेतांइ देवे । गुरु तिस गौकी पूंछको हाथमें धारण करके, यह वेदमंत्र पढे ।
यथा ॥ "ॐ अर्ह गौरियं धेनुरियं प्रशस्यपशुरियं सर्वोत्तमक्षीरदधि घतेयं पवित्रगोमयमूत्रेयं सुधास्राविणीयं रसोद्भाविनीयं * नक्तकवनविशेष.
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org