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________________ चतुर्विंशस्तम्भः । ३६९ अथ वैश्यादेश कहते हैं | त्रिकाल अर्हत्पूजा करनी, सातवार जिनस्तव चैत्यवंदन करना, पंचपरमेष्ठिमंत्रका स्मरण करना, निग्रंथ गुरुकी सेवा करनी । दो कालमें (प्रातः कालमें और सायं कालमें) आवश्यक ( प्रतिक्रमणादि) करना. बारां व्रत पालने, गृहस्थोचित तपोविधि करना, उत्तम धर्म श्रवण करना, परकी निंदा वर्जनी, सर्वत्र उचित काम करना, वाणिज्य, पशुपालन और खेती करके आजीविका करनी । सर्वथाप्रकारे प्राणोंका नाश होवे तो भी, सम्यक्त्व नही त्यागना; मुनियों को आहार, पात्र, वस्त्र, मकान ( उपाश्रय ) का दान करना । कर्मादानसें रहित सर्व उत्तम वाणिज्य (व्यापार) करना, उपनीत वैश्यको ये पूर्वोक्त यत्न करणे योग्य है. ॥ इतिवैश्यत्रतादेशः ॥ अथ चातुर्वर्ण्यस्य समानो व्रतादेशः ॥ ॥ मूलम्म् ॥ निजपूज्यगुरुप्रोक्तं देवधर्मादिपालनम् ॥ देवार्चनं साधुपूजा प्रणामोविप्रलिंगिषु ॥ १ ॥ धनार्जनं च न्यायेन परनिंदाविवर्जनम् ॥ अवर्णवादो न क्वापि राजादिषु विशेषतः ॥ २ ॥ स्वसत्त्वस्यापरित्यागो दानं वित्तानुसारतः ॥ आयोचितो व्ययश्चैव काले काले च भोजनम् ॥ ३ ॥ न वासोऽल्पजले देशे नदीगुरुविवर्जिते ॥ न विश्वासो नरेन्द्राणां नागरीयनियोगिनाम् ॥ ४ ॥ नारीणां च नदीनां च लोभिनां पूर्ववैरिणाम् ॥ कार्य विना स्थावराणामहिंसा देहिनामपि ॥ ५ ॥ नासत्याहितवाक् चैव विवादो गुरुभिर्न च ॥ मातापित्रोर्गुरोश्चैव माननं परतत्त्ववत् ॥ ६ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003207
Book TitleTattvanirnaya Prasada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAmarchand P Parmar
Publication Year1902
Total Pages878
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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