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द्वादशस्तम्भः। (ॐभूरित्यादिमंत्रविशेष) और शिरः (ॐ आप इत्यादिमंत्रविशेष) करके संयुक्तको सर्व वेदोंका सार कहते हैं, ऐसी गायत्री प्राणायाम करके उपासना करने योग्य है, प्रणव (ॐ) सहित तीन व्याहृतीयां संयुक्त प्रणवांतक गायत्रीजपादिक करके उपासना करने योग्य है; तहां शुद्धगायत्री प्रत्यक् ब्रह्मैक्यताकी बोधिका है. 'धियो यो नः प्रचोदयादिति' हमारी बुद्धियोंको जो प्रेरता है, ऐसा सर्वबुद्धिसंज्ञा अंतःकरणप्रकाशक सर्वसाक्षी प्रत्यक् आत्मा कहीये है, तिस प्रचोदयात् शब्दकरके कहे आस्माका स्वरूपभूत परं ब्रह्म तिसकों 'तत्सवितुः' इत्यादिपदोंकरके कथन करिये है. तहां “ॐतत्सदितिनिर्देशो ब्रह्मणस्त्रिविधः स्मृतः” इति ॐ । तत् । सत् । ये तीन प्रकारका ब्रह्मका निर्देश कहा है, सवास्ते 'तत्' शब्दकरके प्रत्यग्भूत स्वतः सिद्ध परंब्रह्म कहिये है 'सवितुः' इसशब्दसें सृष्टिस्थितिलयलक्षणरूप सर्व प्रपंचका समस्त द्वैतरूप विभ्रमका अधिष्ठान आधार लखिये है। वरेण्यं' सर्ववरणीय निरतिशय आनंदरूप । 'भर्गः' अविद्यादिदोषोंका भर्जनात्मक ज्ञानकविषयत्व । 'देवस्य' सर्वद्योतनात्मक अखंड चिदेकरस सवितुः देवस्य ' इहां षष्ठीविभक्तिका अर्थ राहुके शिरवत् औपचारिक जानना, बुद्धिआदि सर्व दृश्य पदार्थोंका साक्षीलक्षण जो मेरा स्वरूप है, सो सर्वअधिष्ठानभूत परमानंदरूप निरस्तदूर करे है समस्त अनर्थ जिसने, तद्रूप प्रकाश चिदात्मक ब्रह्मही है. ऐसें (धीमहि) हम ध्यावते हैं. ऐसे हुआ ब्रह्मके साथ अपने विवर्त जड प्रपंचकरके रज्जुसर्पन्यायकरके अपवाद सामानाधिकरण्यरूपएकत्व है, सो यह है, इस न्यायकरके सर्वसाक्षी प्रत्यग् आत्माका ब्रह्मके साथ तादात्म्य: रूप एकत्व होता है. इसवास्ते सर्वात्मक ब्रह्मका बोधक यह गायत्रीमंत्र है ऐसे सिद्ध होता है ॥
सात व्याहृतियोंका यह अर्थ है ॥ 'भूः' इससे सन्मात्र कहिये है ॥१॥ ‘भुवः' इससे सर्वं भावयति प्रकाशयति इस व्युत्पत्तिसें चिद्रूप कहिये है ॥२॥ सुत्रियते इस व्युत्पत्तिसें 'स्वर्' इति । सुष्टु भलीप्रकारे सर्वकरके त्रियमाण सुखस्वरूप कहिये है ॥३॥"महः' महीयते पूज्यते
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