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तत्त्वनिर्णयप्रासादअन्नपरत्व और धीशब्दको कर्मपरत्व अथर्वण कहता है । तथा च श्रुतिः । " वेदांश्छंदासि सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य कवयोन्नमाहुः।कर्माणि धियस्तदुते प्रब्रवीमि प्रचोदयन्त्सविता याभिरेतीति" ॥ ये तीनतेरेंके अर्थ गायत्रीके सायणाचार्यने ऋग्वेदभाष्यमें करे हैं। ___ तथा तैत्तिरीये आरण्यके १० प्रपाठके २७ अनुवाके । गायत्रीमंत्रका ऐसा अर्थ सायणाचार्यनेही करा है ॥ ( सवितुः) प्रेरक अंतर्यामी (देवस्य) देवके (वरेण्यं ) वर्णीय श्रेष्ठ (तत्) (भर्गः) तिस भर्गको-तेजको (धीमहि) हम ध्यावे हैं। (यः) जो सविता परमेश्वर (नः) हमारी (धियः) बुद्धिवृत्तियोंको (प्रचोदयात् ) प्रकर्षकरके तत्त्वबोधमें प्रेरणा करे, तिसके तेजको हम ध्यावे हैं. इत्यर्थः ॥
तथा महीधरकृत यजुर्वेदभाष्यमें तीसरे अध्यायमें ऐसे लिखा है ॥
(तत्) तस्य-तिस (देवस्य) प्रकाशक (सवितुः) प्रेरक अंतर्यामि विज्ञानानंदस्वभाव हिरण्यगर्भ उपाधिकरके अवछिन्न वा आदित्यांतरपुरुष वा ब्रह्मके (वरेण्यं) सर्वको प्रार्थनीय (भर्गः) सर्व पापोंको और संसारको दग्ध करनेमें समर्थ तेज सत्य ज्ञानादि जो वेदांतकरके प्रतिपाय है तिसको (धीमहि) हम ध्यावते हैं। अथवा मंडल, पुरुष, और किरणां, ये तीन भर्ग शब्दके वाच्य जानने अथवा भर्गनाम वीर्यका जानना। "वरुणाद्ध वा अभिषिषिचानाद्भर्गोऽ पचक्राम वीर्यं वै भर्ग इति श्रुतेः”॥ तस्य कस्य-तिसका किसका ? । (यः) जो सविता (नः) हमारी (धियः) बुद्धियोंको, वा हमारे कर्मोको (प्रचोदयात्) सत्कर्मानुष्ठानकेवास्ते प्रकर्षकरके प्रेरता है । अथवा वाक्यभेदकरके योजना करते हैं, सवितु देवके तिस वरणीय भर्गः-तेजकों हम ध्यावते हैं, और जो हमारी बुद्धियोंको प्रेरता है, तिसको भी हम ध्यावते हैं, और सोसविताही है.।इत्यादि ॥
अथ शंकरभाष्यव्याख्यान लिखते हैं । अथ सर्वदेवात्मक, सर्वशक्तिरूप, सर्वावभासक, प्रकाशक, तेजोमय, परमात्माको सर्वात्मकपणे प्रकाशनके अर्थे सर्वात्मकत्व प्रतिपादक गायत्रीमहामंत्रका उपासनप्रकार (निधि) प्रकट करते हैं। तहां गायत्रीको प्रणवादि सात व्याहृतीयां
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