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एकादशस्तम्भः। अथवा 'स्वस्तत्इति' विशेषण कहते हैं। प्रचोद' यह क्रियापद । 'अनः' यह कर्मपद। अंतरात्मारूप सारथिकरके प्रवर्तनीय होनेसें, अन:कीतरें अनः शरीर, तिसको 'प्रचोद' चुदण संचोदने तस्य चुरादेर्णिचोऽनित्यत्वात्तदभावे हौ रूपं । संचोदनं च नोदनमिति धातुपारायणकृता तथैव व्याख्यानात् । तब तो 'प्रचोद' प्रकर्षकरके नुद स्फोटय फोड इत्यर्थः । नही इस दग्धकाय मलीनशरीरके त्यागेविना कहिं भी परम सुखका लाभ होता है.। वेदमें भी कहा है। “ अशरीरं वा वसंतं प्रियाप्रिये न स्पृशतः। नहि वै सशरीरस्य प्रियाप्रिययोरपहतिरस्तीति ॥” इतिवैष्णवाभिप्रायेण मंत्रव्याख्या ॥५॥ _ अथवा सौगत (बुद्ध) अपने देव बुद्धभट्टारकको प्रणिधान करते हुए ऐसें कहते हैं। मंत्रः॥
ॐ भूर्भुवः स्वस्तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गोदेवस्य धीम हि धियो यो नः प्रचोदयात् ॥१॥६॥ ॐ। भूः । भुवः । स्वस्तत् । सवितुः। वरेण्यं । भर।गोदेवस्य । धीम। हि। धियो । यो। नः । प्रचोदय। अत् ॥६॥
व्याख्याः - (ॐ) इसका अर्थ पूर्ववत् जानना (भूः) हे भूः हे आधार! किसका? (भुवः) भव्यलोकस्य-भव्यलोकका, (स्वस्तत्) स्वः-परलोकको तनोति-विस्तारयति-प्रज्ञापयति कथन करे जणावे सो ‘स्वस्तत्' तिसका संबोधन 'हे स्वस्तत्' इत्यर्थः । आत्माकी नास्ति मानके परलोकको अंगीकार करनेसें। ‘आत्मा नास्ति पुनर्भावोस्तीत्यादिवचनात् ' । आत्माका नास्तिपणा ऐसें है। हे भिक्षवः ! यह पांच संज्ञामात्र है, संवृतिमात्र है, व्यवहारमात्र है; कौनसे वे पांच ? अतीतकाल १, अनागतकाल २, प्रतिसंख्यानिरोध ३, आकाश ४, और पुद्गल ५, इस बुद्धके वचनसें.। यहां पुद्गलशब्दकरके आत्माका ग्रहण है. इति। (सवितुर्वरेण्यं) हे सूर्यसें प्रधान बुद्ध भगवन् ! अर्क बांधव होनेसें, शाक्यसिंहनामा सप्तम बुद्धका यह आमंत्रण है। (भर्) बिभर्तीति भर हे पोषक ! किसका ? (गोदेवस्य)
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