SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 394
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ एकादशस्तम्भः। २८९ व्याख्याः - ( ॐ ) इसका अर्थ प्राग्वत् जानना ( भूर्भुवः स्वस्तत्) हे लोकत्रयव्यापिन् विष्णो कृष्ण ! "जले विष्णुः स्थले विष्णुर्विष्णुः पर्वतमस्तके | जीवमालाकुले विष्णुस्तस्माद्विष्णुमयं जगत् ॥ १ ॥ " इस वचनसें । अथवा (भूः) भू: नाम आश्रयका है, किसका आश्रय ? ( भुवः ) पृथिव्याः अर्थात् हे पृथिवीका आश्रय ! | (स्वस्तत्) 'स्वर्गे परे च लोके स्वः' इति अमरकोशके वचनसें 'स्वः' परलोकको तनोति इति स्वस्तत् परलोकहेतु इत्यर्थः । गतिमिच्छेज्जनार्दनात्' इस वचनसें । यहां 'भव' इस क्रियाका अध्याहार करना । तथा (नः) इस अगले पदका यहां संबंध करनेसें हे पृथिवीका आश्रय ! हे परलोकका हेतुभूत! 'नः' हम आराधकोंको परलोकके सुखोंकी प्राप्तिवाला हो. इत्यर्थः । तथा (सवितुर्वरेण्यं) सवितुर्जनकात् - पितासें भी, वरेण्यं-प्रधानतर ! प्रजाको आगामि सुखोंकरके पालनेसें पितासें अधिकतर प्रेमवान् ! इत्यर्थः । अनुनासिक प्राग्वत् जानना । तथा ( भर्गोदेव ) भर्गश्च उश्च तयोरपि देव: महादेव और ब्रह्माका भी देव ! पूज्य होनेसें । बाणाहवादिमें पार्वती के पति महादेवका पराजय श्रवण करनेसें, और हरिके नाभिकमलकरके ब्रह्माके जन्मकी प्रसिद्धि होनेसें, विष्णु, महादेव और बह्माका पूज्य है. पूज्य होनेसें, विष्णु, ईश्वर और ब्रह्माका देव सिद्ध हुआ. भर्गोदेव: ' तिसका आमंत्रण हे भर्गोदेव ! तथा (स्य ) त्यत् शब्दका तत्शब्दके अर्थके आमंत्रणमें यह प्रयोग है, तब तो हे स्य ! | हेस ! | स्मृतिप्रविष्ट होनेसें इसप्रकार विशेषणका उपन्यास है । संस्कारके प्रबोधसें उत्पन्न अनुभूत अर्थविषय तत् ( सो यह ) ऐसे आकारवाला जो ज्ञान सो स्मरण कहिये । ऐसा स्मृतिका लक्षण होनेसें । इसकरके प्रणिधानमें एकाग्रता कथन करिये हैं । तथा ( धीमहि ) मतुप्के लोप होनेसें अथवा अभेदोपचारसें 'धियः- पंडिता: ' 'अर्ह मह पूजायामिति धातोः क्विबंतस्य महूइतिरूपं महतीति महू पूजक- आराधक इति यावत्, धियां महू धीमहू, विद्वज्जनपर्युपासकः पुरुषस्तस्मिन् आधारे ।' अर्ह और मह धातु पूजार्थमें है, तिसमेंसे महधातुका किपूप्रत्ययांत महू ऐसा रूप होता है, जो पूजा करे उसको महू कहिये, अर्थात् पूजक - आराधक यह तात्पर्यः । ८ ३७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003207
Book TitleTattvanirnaya Prasada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAmarchand P Parmar
Publication Year1902
Total Pages878
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy