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________________ एकादशस्तम्भः। २७ मंत्रश्चायं ॥ ॐ भूर्भुवःस्वस्तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गोदेव स्य धीमहिधियो यो नः प्रचोदयात् ॥१॥३॥ ॐ। भूर्भुवःस्वस्तत् । सवितुः । वरेण्यं । भर्ग । उदे । अव । स्य । धीम्। अहिधियः। यो। नः। प्रचोदया। अत् ॥३॥ व्याख्यापूर्ववत् ॥ इति वैशेषिकाभिप्रायण मंत्रव्याख्या ॥३॥ अथ सांख्यमतवाले अपने कपिलदेवको नमस्कार करते हुए, यह कथन करते हैं। मंत्रः॥ ॐ भूर्भुवःस्वस्तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गोदेवस्य धीम हि धियो यो नः प्रचोदयात् ॥१॥४॥ ॐ। भूर्भुवःस्वस्तत्। सवितुः। वरेण्यं । भर्। गोदेवस्य । धीम। हि। धियः। यो । नः। प्रचोदय । अत् ॥ ४॥ व्याख्याः-(धीम) धीनाम बुद्धितत्त्वका है, तिसको मिमीते शब्दयति प्ररूपयतीति-कथन करे प्ररूपे सो ‘धीमः'भगवान् कपिल इत्यर्थः तिसका आमंत्रण हे धीम! अर्थात् हे भगवन् कपिल !(ॐ भूर्भुवःस्वस्तत्) इसका अर्थ पूर्ववत् जान लेना।" अमर्त्तश्चेतनो भोगी नित्यः सर्वगतोक्रियः। अकर्ता निर्गुण: सूक्ष्म आत्मा कपिलदर्शने ॥१॥” अमूर्त, चेतन, भोगी, नित्य, सर्वव्यापक, अक्रिय, अकर्त्ता, निर्गुण, सूक्ष्म, कपिलमुनिके मतमें ऐसे लक्षणोंवाला आत्मा माना है.।१। इसवचनसें तीन लोकमें व्यापित्व सिद्ध है। (सवितुर्वरेण्यं) इसका अर्थ अक्षपादवत् जानना। अब कपिलकोही उपयोग संपदाकरके विशेष करते हैं । (भर् ) डु,ग्-क पोषणे च बिभर्तीति भर पोषकः पोषणकरनेवाला। किसका सो कहे हैं, (गोदेवस्य) गोशब्दकरके यहां खुर ककुद साना लांगूल (छ) विषाण (शृंग) आदि अवयवसंयुक्त पशु कहिए हैं, तिसकीतरें विधेयताकरके लखिये हैं, इसवास्ते गौकीतरें विधेयानि वश्यानि देवानि इंद्रियाणि वशीभूत हैं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003207
Book TitleTattvanirnaya Prasada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAmarchand P Parmar
Publication Year1902
Total Pages878
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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